मुझे याद आती है विलियम बेंटिक भारत के गवर्नर जनरल, ने 1818 में एक पत्र लन्दन के बड़े अधिकारियों को एक पत्र लिखा था जिसमे वो कहते हैं कि 'अब हमें (भारतीयों से) घबराने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि वे अब अपने रीति रिवाज छोड़ रहे हैं, दान दक्षिणा जो साधुओं, फकीरों इत्यादि को देते थे वे अब देना बंद कर दिया है और उस बचे हुए पैसे को वे अब हमारी (अंग्रेज़ों की) नकल करने और हमे दावतें, इत्यादि दे कर हमें खुश करने में वह पैसा खर्च करने लगे हैं'। उनकी समझ की दाद देनी पड़ेगी। जब नकल होने लगती है तो समझ लीजिए जिसकी नकल की जा रही है उसने बाजी जीत ली और जो नकल कर रहे हैं, उनका बेड़ा गर्क।
यही बात 1853 में चार्ल्स ट्रेवेलियन करता है। वह कहता है 'मैं 12 वर्ष भारत में रहा। पहले 6 वर्ष दिल्ली में। वहां रहते हुए एक रात भी चैन की नींद नहीं सो पाया। हर रोज़ हमे खतरा रहता था की कहीं से बगावत न हो जाय। फिर आखिर के 6 वर्ष कलकत्ता रहा और हर रोज़ चैन से सोया क्योंकि वहां का पढ़ा लिखा बर्ग अब हमारी नकल करने में लगा है।
यह नकल करने का रोग हमारा पुराना है। अब तो यह और सूक्ष्म और भोंडा भी हो चला है। जिस देश में फटे कपड़े को पहनना अपशुकन माना जाता था, जहां गरीब से गरीब भी जल्दी से फटा कपड़ा नहीं पहनता था, भले ही थोड़ा मैला पहन लें, उस देश का जागरूक युवा जो 'कैंडल मार्च' और 10 रुपये फीस बढ़ने पर जुलूस निकाल सकता है - इतना जागरूक और सोचने समझने वाला है - वह 5/10 हज़ार की फटी जीन पहनने में अपनी शान समझता है। अब किसी को तो सोचना चाहिए कि यह युवा क्या वाकई सोचता है? या ऐसा सिर्फ 'मानता' है कि वह 'सोचता' है। इन दोनों में तो बड़ा फर्क होता है। अंग्रेज़ों के ज़माने के भारतीय जो उनकी नकल करते थे वे भी सोचते होंगे की वे सोच समझ कर कर रहे है?
नकल करने वाले को लगता है कि वह सोच कर कर रहा है, जो कर रहा है।
आज उन बातों को 200 वर्ष हो गए। अंग्रेज़ चले गए। दुनिया से उनका बोलबाला भी उठ गया। पर पिछले 70/80 वर्षो से उनके भाई बंद अमरीकन आ गए , उनकी जगह। पर हम वहां के वहां रहे। नकल किसकी करनी है, उसकी दिशा थोड़ी सी बदल गई बस। नकल अति सूक्ष्म रूप जब लेती है तो विचारों के रूप में होती है। पहले उसका नेतृत्व राजा राम मोहन रॉय जैसे लोगों ने, ब्रह्म समाज के लोगों ने किया होगा अब लिबरल सोच वही काम कर रही है। हिन्द स्वराज में गाँन्धी जी ने आधुनिक व्यवस्था के मायावी चरित्र को बेनकाब करने की कोशिश की। पर लिबरल लोग उनके नाम की माला भी जपते हैं और उन्हें समझने की ज़रूरत भी नही समझते। उनका सनातनी हिन्दू होना उन्ही भाता नही। तो उन्हें सेक्युलर बनाने पर तुले हैं, बल्कि बना ही दिया। जैसे कबीर को उन्होंने सेक्युलर बना दिया। कबीर ने जो अपने गुरु पर लिखा, राम पर लिखा वह सब गायब कर दिया गया है, लगभग।
अब विचारों का फैशन चला है। इस फैशन में कहीं भी सनातनी बू आये तो उससे परहेज का दिखावा करना भी फैशन है। सोचना जब बन्द हो तो और विचारों में ध्रुवीकरण ने पैठ जमा ली हो तो फिर सोचते हैं कि सोचते हैं। उसमें अहंकार, भय और दिखावे का एक रोचक मिश्रण होता है। आज यही हो रहा है
यही बात 1853 में चार्ल्स ट्रेवेलियन करता है। वह कहता है 'मैं 12 वर्ष भारत में रहा। पहले 6 वर्ष दिल्ली में। वहां रहते हुए एक रात भी चैन की नींद नहीं सो पाया। हर रोज़ हमे खतरा रहता था की कहीं से बगावत न हो जाय। फिर आखिर के 6 वर्ष कलकत्ता रहा और हर रोज़ चैन से सोया क्योंकि वहां का पढ़ा लिखा बर्ग अब हमारी नकल करने में लगा है।
यह नकल करने का रोग हमारा पुराना है। अब तो यह और सूक्ष्म और भोंडा भी हो चला है। जिस देश में फटे कपड़े को पहनना अपशुकन माना जाता था, जहां गरीब से गरीब भी जल्दी से फटा कपड़ा नहीं पहनता था, भले ही थोड़ा मैला पहन लें, उस देश का जागरूक युवा जो 'कैंडल मार्च' और 10 रुपये फीस बढ़ने पर जुलूस निकाल सकता है - इतना जागरूक और सोचने समझने वाला है - वह 5/10 हज़ार की फटी जीन पहनने में अपनी शान समझता है। अब किसी को तो सोचना चाहिए कि यह युवा क्या वाकई सोचता है? या ऐसा सिर्फ 'मानता' है कि वह 'सोचता' है। इन दोनों में तो बड़ा फर्क होता है। अंग्रेज़ों के ज़माने के भारतीय जो उनकी नकल करते थे वे भी सोचते होंगे की वे सोच समझ कर कर रहे है?
नकल करने वाले को लगता है कि वह सोच कर कर रहा है, जो कर रहा है।
आज उन बातों को 200 वर्ष हो गए। अंग्रेज़ चले गए। दुनिया से उनका बोलबाला भी उठ गया। पर पिछले 70/80 वर्षो से उनके भाई बंद अमरीकन आ गए , उनकी जगह। पर हम वहां के वहां रहे। नकल किसकी करनी है, उसकी दिशा थोड़ी सी बदल गई बस। नकल अति सूक्ष्म रूप जब लेती है तो विचारों के रूप में होती है। पहले उसका नेतृत्व राजा राम मोहन रॉय जैसे लोगों ने, ब्रह्म समाज के लोगों ने किया होगा अब लिबरल सोच वही काम कर रही है। हिन्द स्वराज में गाँन्धी जी ने आधुनिक व्यवस्था के मायावी चरित्र को बेनकाब करने की कोशिश की। पर लिबरल लोग उनके नाम की माला भी जपते हैं और उन्हें समझने की ज़रूरत भी नही समझते। उनका सनातनी हिन्दू होना उन्ही भाता नही। तो उन्हें सेक्युलर बनाने पर तुले हैं, बल्कि बना ही दिया। जैसे कबीर को उन्होंने सेक्युलर बना दिया। कबीर ने जो अपने गुरु पर लिखा, राम पर लिखा वह सब गायब कर दिया गया है, लगभग।
अब विचारों का फैशन चला है। इस फैशन में कहीं भी सनातनी बू आये तो उससे परहेज का दिखावा करना भी फैशन है। सोचना जब बन्द हो तो और विचारों में ध्रुवीकरण ने पैठ जमा ली हो तो फिर सोचते हैं कि सोचते हैं। उसमें अहंकार, भय और दिखावे का एक रोचक मिश्रण होता है। आज यही हो रहा है
No comments:
Post a Comment