अभी अभी ब्रितानिया में चुनाव हुए। वहाँ भी वही हुआ जो दुनिया के अधिकतर लोकतान्त्रिक मुल्कों में पिछले 5-7 वर्षों में तेजी से हो रहा है। लेफ्ट, सेक्युलर लिबरल दल हर जगह हार रहे हैं। इस हवा को समझने की ज़रूरत है। सबसे ज़रूरी उनके लिए है जो इस विचारधारा के समर्थक हैं, जिसमे मैं भी एक हद तक अपने को पाता हूँ।
लिबरलिस्म में जो एक बड़ा विकार आ गया है वह है दोगलेपन का।
निजी जीवन में कोई मूल्य होने की ज़रूरत नहीं, मूल्यों की बातें सिर्फ सार्वजनिक जीवन में की जाएंगी। आज से 50-60 वर्ष पहले जो लोग लेफ्ट पॉलिटिक्स से इत्तेफाक रखते थे, उनके निजी जीवन में भी मूल्य दिखाई देते थे। अब ऐसा होना कतई ज़रूरी नहीं। नाम लेना ठीक नहीं होगा पर हमारे अखबारों और टीवी चनेलों के बड़े नामों, फिल्मी दुनिया के लेफ्ट लिबरल, संसद में बैठे कई सांसदों, नए समाजवादियों इत्यादि कहीं भी नज़र दौड़ायें - आपको मेरे बात समझ आ जाएगी। कर्पूरी ठाकुर, किशन पटनायक, रबी राय, का जीवन देखें और आज के मुलायम सिंह या लालू के परिवार के सदस्यों को देखे जो अपने को समाजवादी कहते हैं।
दूसरा दोगलापन है धर्म को लेकर। पहले के लेफ्ट पॉलिटिक्स वाले लोग ज़्यादातर नास्तिक (aethist या agnostic) की श्रेणी में आते थे। घर के अंदर भी और बाहर भी। अब ऐसा नहीं। घर के अंदर आस्तिक और बाहर नास्तिकता का ढोंग।
बाहर गरीबों की बातें और खुद का जीवन, जीवन शैली और यारी दोस्ती अमीरों के साथ। इस तरह के तमाम विरोधाभास नए लिबरल सेक्युलर जमात में आ गए हैं। जिस तरह की राजनीति पिछले 40/50/60 वर्षों में दुनिया में हावी है, विशेषकर पुराने सोवियत रूस के टूटने के बाद, उसमे इस तबके को बहुत से राजनैतिक लाभ भी मिले।
इस दौरान NGO की दुनिया खूब बढ़ी। उसे बढ़ाने में, प्रोत्साहित करने में भी उन शक्तियों का (विशेषकर अमरीकी establishment और वहाँ की अकादमिक दुनिया) हाथ रहा। NGO के अलावा यहाँ की मीडिया और activist तबके को भी इनही शक्तियों ने खूब प्रोत्साहित किया। प्रोत्साहित ही नहीं किया अपने दोगले चरित्र के रंग में भी रंग कर इन्हे बर्बाद कर दिया।
अब दुनिया के साधारण लोग इस फरेब को समझने लगे हैं। इस समझ की प्रक्रिया कुछ वैसी ही है जैसे एक बच्चा अपने घर, माँ-बाप के झूठ और फरेब को समझता है। यह प्रक्रिया हम और आप बड़े होने पर जैसे समझते हैं उससे अलग है।
लिबरलिस्म में जो एक बड़ा विकार आ गया है वह है दोगलेपन का।
निजी जीवन में कोई मूल्य होने की ज़रूरत नहीं, मूल्यों की बातें सिर्फ सार्वजनिक जीवन में की जाएंगी। आज से 50-60 वर्ष पहले जो लोग लेफ्ट पॉलिटिक्स से इत्तेफाक रखते थे, उनके निजी जीवन में भी मूल्य दिखाई देते थे। अब ऐसा होना कतई ज़रूरी नहीं। नाम लेना ठीक नहीं होगा पर हमारे अखबारों और टीवी चनेलों के बड़े नामों, फिल्मी दुनिया के लेफ्ट लिबरल, संसद में बैठे कई सांसदों, नए समाजवादियों इत्यादि कहीं भी नज़र दौड़ायें - आपको मेरे बात समझ आ जाएगी। कर्पूरी ठाकुर, किशन पटनायक, रबी राय, का जीवन देखें और आज के मुलायम सिंह या लालू के परिवार के सदस्यों को देखे जो अपने को समाजवादी कहते हैं।
दूसरा दोगलापन है धर्म को लेकर। पहले के लेफ्ट पॉलिटिक्स वाले लोग ज़्यादातर नास्तिक (aethist या agnostic) की श्रेणी में आते थे। घर के अंदर भी और बाहर भी। अब ऐसा नहीं। घर के अंदर आस्तिक और बाहर नास्तिकता का ढोंग।
बाहर गरीबों की बातें और खुद का जीवन, जीवन शैली और यारी दोस्ती अमीरों के साथ। इस तरह के तमाम विरोधाभास नए लिबरल सेक्युलर जमात में आ गए हैं। जिस तरह की राजनीति पिछले 40/50/60 वर्षों में दुनिया में हावी है, विशेषकर पुराने सोवियत रूस के टूटने के बाद, उसमे इस तबके को बहुत से राजनैतिक लाभ भी मिले।
इस दौरान NGO की दुनिया खूब बढ़ी। उसे बढ़ाने में, प्रोत्साहित करने में भी उन शक्तियों का (विशेषकर अमरीकी establishment और वहाँ की अकादमिक दुनिया) हाथ रहा। NGO के अलावा यहाँ की मीडिया और activist तबके को भी इनही शक्तियों ने खूब प्रोत्साहित किया। प्रोत्साहित ही नहीं किया अपने दोगले चरित्र के रंग में भी रंग कर इन्हे बर्बाद कर दिया।
अब दुनिया के साधारण लोग इस फरेब को समझने लगे हैं। इस समझ की प्रक्रिया कुछ वैसी ही है जैसे एक बच्चा अपने घर, माँ-बाप के झूठ और फरेब को समझता है। यह प्रक्रिया हम और आप बड़े होने पर जैसे समझते हैं उससे अलग है।
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