Saturday, December 21, 2019

लगता है आने वाले 20 वर्षों में जिन देशों में तथाकथित लोकतंत्र है - इस्लाम को मानने वाले देश , चीन, रूस, इत्यादि को छोड़ कर - वहां असली लड़ाई सेक्युलर, लिबरल राजनीति  से होगी। क्योंकि अभी इस आधुनिक विचारधारा का ठोस विकल्प निकाला नहीं है इसलिए इस बदलाव की प्रक्रिया में से ही कुछ निकलेगा।

दो बातें हैं। एक तो यह कि अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी से लेकर भारत तक के साधारण लोग आधुनिकता से और उससे निकली यह सेक्युलर लिबरल ढकोसले और फरेब की राजनीति से परेशान तो है और उसके प्रतिकार में कहीं ट्रम्प, कहीं जॉनसन, कहीं मकरों और कही मोदी के प्रयोग चल रहे हैं। महत्वपूर्ण ये लोग नही। महत्वपूर्ण यह हवा है जो पिछले 70/80 वर्षों  के ढकोसले और फरेब के खिलाफ चलनी शुरू हुई है। आधुनिक मुहावरों, फरेब भरे नारों और खोखले आधुनिक मूल्य जैसे समानता, लोकतन्त्र, समान अधिकार ,  इत्यादि इत्यादि से लोग थक गए हैं। उन्होंने देख लिया है कि यह सब कहने की बाते है। उल्लू बनाओ और राज करो यह है आधुनिक लोकतन्त्र। असलियत यह है। आधुनिक शास्त्र क्या कहते  है, वह अलग बात है। असलियत तो यही है जिसे साधारण आदमी कहीं महसूस करने लगा है पर उसके पास शब्द नही है इसके लिए। इसका इज़हार वह कभी क्लिंटन को हरा कर और कभी मोदी जी को जीता कर करता है। मुख्य बात है कि इस विचारधारा की पोल खुलने लगी है।

दूसरी बात यह है कि अभी भी दुनिया का तंत्र ही नहीं, इसको चलाने  वाली ताकते और दुनिया की असली कमान, इन सेक्युलर लिबरल शक्तियों के पास ही हैं। ट्रम्प भले ही राष्ट्रपति हों पर तंत्र की कमान उन्ही पुरानी शक्तियों के पास है। यहां भी ऐसा ही है। इसलिए चिदंबरमऔर पवार जैसों  का आप कुछ नही बिगाड़ सकते। सोनिया का भी नहीं। इनके हाथ मोदी शाह से कहीं बड़े हैं। मोदी शाह तो अभी बच्चे हैं इनके मुकाबले। मीडिया को मोदी शाह जो भी करते हैं वह तो साफ झलक जाता है। ये दूसरी शक्तियां तो बिना सामने आए आपना खेल खेल जाती है और किसी को पता भी नहीं चलता। नेहरू के ज़माने से  rss और जनसंघ को हथियार बना कर मुसलमानों को डराया गया और कांग्रेस ने अपने को मुसलमानों और दलितों का रहनुमा बना कर पेश किया। कमाल की चाल चली। और आज फिर वही खेल खेला जा रहा है। इस manipulation के खेल में ये शक्तियां यहां भी और अमरीका में भी, माहिर हैं। ट्रम्प और मोदी ये इस खेल में अभी पके नहीं है।

एक और बात मोदी ट्रम्प जैसे लोगो की राजनीति भी उसी paradigm के अंदर है। ये उसी paradigm की गिरफ्त में है, उससे बाहर नही पर फिर भी ये लोग कही उस sophisticated माहैल में फिट नही बैठते। इसलिए ये एक प्रकार की चुनौती हैं , उस पुरानी खाई पी कर मोटी हुई आधुनिक सेक्युलर लिबरल व्यवस्था को। एक प्रक्रिया चल रही है। महत्वपूर्ण है।

ऊंट किस करबट बैठता है - इस पर निर्भर करता है कि यह फरेबी व्यवस्था और कितने दिन चलेगी। paradigm के अंदर युद्ध चल रहा है। लोग इस paradigm से उकता चुके है। विकल्प की तलाश है। मिल नहीं रहा पर कसमसाहट हो रही हैं। पुरानी शक्तियाँ परेशान है पर बहुत ताकत है अभी उनमे और वे पूरा जोर लगा रही हैं कि यथास्थिति बनी रहे। देखे क्या होता है। बुद्धिजीवी वर्ग पूरी तरह यथास्थिति में विश्वास रखता है। कृपाचार्य की संतानें!

पवन कुमार गुप्त
दिसंबर 21, 2019

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