Tuesday, December 17, 2019

दलगत राजनीति की सीमाओं में हमें समस्या की न जड़े दिखाई देती हैं और न ही समाधान। यह एक पेंच है। आधुनिक राष्ट्र को सशक्त समाज भाता नही। उसे individual से समस्या नहीं, समाज से है। individual राज्य व्यवस्था को चुनौती नहीं दे सकता, समाज दे सकता है। इसलिए आधनिकता में व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिलता रहता है और इस प्रवृत्ति को बढ़ा कर समाजों को तोड़ा जाता है। और व्यक्तिवाद जब बढ़ता है तब तुलना की प्रवृति बढ़ती है, होड़ बढ़ती है। यह प्रवृत्ति बढ़ती है तो खपत बढ़ती है, उपभोग बढ़ता है, बाजार को फायदा होता है। gdp बढ़ती है। राज्य व्यवस्था ठीक ठाक चलती है। individual भी खुश। राजयभी समृद्ध।

ध्यान रहे आजकल जिसे सिविल सोसाइटी कहा जा रहा है वह समाज नही। सिविल सोसाइटी तो किसी एक आध ज्वलंत मुद्दे पर कुछ समय के किये साथ आती है फिर बिखर जातीहै। उसे सिर्फ व्यक्तिगत विरोध का भाव जोड़े रखता है। वह समाज नहीं individuals का समूह होता है। इसमें और समाज में कोई साम्य नही। इसे एक मानना समाज को न समझ पाने का संकेत है।

समाज तो सभ्यतागत और सांस्कृतिक मान्यताओं में ऐक्य की वजह से होता है। खास समाज के लोगों की जीवन शैली, रीति रिवाज, उनकी मान्यताएं, रहन सहन, होने की वजह से वह समाज कहलाता है। समाज की ताकत ही है की उनका लगभग एक जैसा होना और मानना ही उन्हें एक रखता है और उससे शक्ति मिलती है। समाज राज्य व्यवस्था को चुनौती देने की शक्ति रखता है इसलिए वह आधुनिक राज्य व्यवस्था को सुहाता नहीं। समाज स्वतः ही रहन सहन को भी एक मर्यादित सीमा में रखता है इसलिए बाजार और उपभोगतवाद को भी समाज पसंद नही।

आधुनिक व्यवस्था में इंडिविदुआलिस्म को बढ़ाया जाना प्रायः अनिवार्य सा ही है। individualism का राजनैतिक पक्ष फिर 'अधिकार' की तरफ ले जाता है। ध्यान रहे क्योंकि समाज में मर्यादा का भाव प्रबल होता है इसलिए वहां अधिकार नहीं 'जिम्मेदारी' की प्रबलता होती है।

आधनिकता मैं individualism और उससे जुड़े भाव या विचार भी, 'अधिकार' को बढ़ावा मिलता है। पर individual की क्योंकि अपनी कोई ताकत प्रायः नगण्य सी ही होती है इसलिए अधिकार सिर्फ एक विचार के रूप में ही रह जाता है, वास्तविकता में उसकी परिणीति होती नहीँ ( अधिकार तो है पर लगाते रहिये कोर्ट के चक्कर! पैसा है तो बात बन सकती है वरना undertrial कितने हैं देश में, गिन लीजिये!).

तो एक तरफ आधुनिक व्यवस्था आपको (संविधान में/से) अधिकार दे कर खुश कर देती है पर वास्तविकता अलग होतीहै। इसे ध्यान देने से देखा जा सकता है। कोई मुश्किल बात नहीहै।
इसे देखने पर आधनिकता का दर्शनीय पक्ष और उसकी वास्तविकता के बीच के विरोधाभासों को समझने की ज़रूरत है। वोट का अधिकार दे दिया पर जिसे वोट दिया वह अपनी दिशा बदल लें तो आप कुछ नही कर सकते। अभी हाल मैं महाराष्ट्र मेजो हुआ उससे समझा जा सकता है। यह पहली बार नही हुआ। न ही आखरी बार। फिर भी हम आधुनिक लोकतन्त्र की दुहाई देते रहतेहैं!

तो आधनिकता देखने में कुछ और असलियत में कुछ और ही है। आधुनिक मूल्य भी ऐसे ही हैं। दिखाने के लिए, बात करने के लिए, और असलियत में नदारद। individual की कोई पैठ, कोइबैठक नही होती। वह बेचारा कहाँ से अपनी शक्ति को ले, कहां से शक्ति derive करे? समाज अच्छा, बुरा जैसा भी है उसकी जड़े होती हैं, वही से शक्ति मिलती है। individual की तो जड़ ही नही होती। उसकी समझ का कोई पैंदा ही नही। तो उसके विचार बनाये जाते है - आधुनिक शिक्षा और मीडिया द्वारा। वे जैसे उसे ढाल दें। और यह दुनिया तो फैशन की दुनिया जैसी होती। आज कुछ कल कुछ। कोई ठौर नहीं। इसी दुनिया से व्यक्ति कभी फटी जीन्स पहनने लगता है, कभी तंग कभी चौड़ा कभी लंबे बाल, चोटी, कभी पूरा साफ। नांच दूसरे नचवाते हैं, भ्रम में रहता है 'मेरी मर्ज़ी'. पुरुष महिला जैसे और महिला पुरुष जैसे बनने में अपने को आधुनिक बना रहे हैं।

आधनिकता बाहर से कुछ, अंदर से कुछ और। बाहर से सेक्युलर, अकड़,मूल्यों की बात करने वाला,  अंदर से डरा हुआ, अपने को हर समय दूसरे से तुलना करता हुआ और छोटा महसूस करता हुआ। बाहर से अनीश्वरवादी अंदर में अपने भगवान से कुछ मांगता हुआ। कुल मिला कर आधनिकता छद्म से भरी है। आधुनिक व्यवस्थाएं इससे साम्य रखते हुए इस भ्रम को बनाये रखने में सहायक हैं। अभी इतना ही।

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