राजनैतिक माहौल तो ऐसा हो गया है कि आप कोई सहज बात कर ही नही सकते। पढ़ने के पहले ही लोग दो ध्रुवों में से किसी एक में पहले डालेंगे और पढ़ेंगे बाद में। यह होड़ सिर्फ नेताओं में नहीं, मीडिया में ही नहीं, जो भी अपने को सोचने समझने वाले तबके में रखता है, उनमे भी है कि वह यह जताए/ दिखाए कि वह कितना बड़ा सेक्युलर है।
पर यह पाखण्ड तो हमे ले डूबेगा। महात्मा गाँधी का नाम लेते हैं पर उनको पढ़ तो लीजिये पहले। वे तो इस तरह के छिछले सेक्युलर नहीं थे - मेरी छोटी सी बुद्धि के अनुसार। थोड़ा बहुत पाखण्ड तो आधुनिक दुनिया में चलता ही है पर इस पिछले 30-35 वर्षों की लिबरल राजनीति ने इसे इस कदर बढ़ा दिया है कि व्यक्ति अपने से ही दूर होता जा रहा है। अंदर कुछ और बाहर कुछ। बाहर मूल्य और सिद्धांतों की बातें और अंदर - सबको पता पता है !
पर यह पाखण्ड तो हमे ले डूबेगा। महात्मा गाँधी का नाम लेते हैं पर उनको पढ़ तो लीजिये पहले। वे तो इस तरह के छिछले सेक्युलर नहीं थे - मेरी छोटी सी बुद्धि के अनुसार। थोड़ा बहुत पाखण्ड तो आधुनिक दुनिया में चलता ही है पर इस पिछले 30-35 वर्षों की लिबरल राजनीति ने इसे इस कदर बढ़ा दिया है कि व्यक्ति अपने से ही दूर होता जा रहा है। अंदर कुछ और बाहर कुछ। बाहर मूल्य और सिद्धांतों की बातें और अंदर - सबको पता पता है !
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