Wednesday, December 25, 2019

भारतवर्ष में पढ़ाई लिखाई खास कर कालेज और यूनिवर्सिटी की और थोड़ी सी अंग्रेज़ी किताबे तथा अंग्रेज़ी फिल्मे और अंग्रेज़ी गाने सुनने , पढ़ने, देखने के बाद यहां का साधारण और 'पिछड़ा' आदमी सभ्य बन जाता है और अभिजात्य वर्ग में उसकी एंट्री के दरवाजे खुल जाते हैं।

और फिर अगर उस पर लेफ्ट और लिबरल और सेक्युलरिज़्म का मेकअप चढ़ जाय तो बल्ले बल्ले। यह सिलसिला कलकत्ते से होता हुआ, मद्रास से होता हुआ अब पूरे देश में फैल गया है। हर व्यक्ति 'विकसित' होने को उतावला है। अपने देसीपन को उतार कर अभिजात्य वर्ग में जाने को लालायित है। यह प्रक्रिया 1810 के करीब से लगातार चल रही है।

हिन्दू होने पर, मंदिर जाने पर, कोई पूजा अनुष्ठान करने में एक असहजता का होना, या शर्म आना, झेंप आना इसके लक्षण है।
नकलचिपन, दोगलापन, आत्म संकोच, अपने से घृणा इत्यादि इत्यादि अब हमारे स्वभाव का हिस्सा है।

देश में दो तबके हो गए है विशेषकर हिंदुओं में। एक साधारण एक अभिजात्य या अभिजात्य होने को आतुर कातुर। वर्तमान राजनै5 संघर्ष को इस नजरिए से देखने पर साफ होता है कौन इस बदलाव के पक्ष में है और कौन विरोध में

पवन कुमार गुप्त
दिसंबर 25, 2019
pawansidh.blogspot. com

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