देश सदियों से घायल है। घायल हिन्दू, सिख, जैन, बोद्ध तो हुए ही हैं, यहां का 95 प्रतिशत मुसलमान और यहां का क्रिस्तान भी कभी न कभी घायल हुए हैं। मानसिक रूप से घायल, मनोवैज्ञानिक स्तर पर घायल। पहले मुसलमानों के राज में भय से आक्रांत रहे। डरे डरे, अपने को समेटे हुए। यह सिर्फ हिन्दू और गैर मुस्लिमों की बात ही नहीं है। जो धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बने उनमे भी डर रहा होगा। हिंदुस्तान का व्यापक समाज भय ग्रस्त हुआ। नालंदा जब जला होगा या और उसी तरह की घटनाएं हुई होंगी, या जब जब जजिया लगा होगा, या गुरु रामराय या गुरु गोविंद सिंह केसाथ जो जो घटा वह घटा होगा और उसकी खबरे व्यापक समाज तक पहुंची होंगी तो समस्त समाज, मुसलमान समेत आक्रांत तो हुआ होगा। सदियों भय में जीने की आदत भले ही पड़ जाय पर वह घायल तो कर देता है। न तो मैं इतिहासविद की हैसियत से और न ही कोई सामाजिक मनोवैज्ञानिक की हैसियत से कहने की legitimacy रखता हूँ जो आजकल के specilisation के ज़माने में बहुत ज़रूरी मान लिया गया है, परन्तु एक सामान्य बुद्धि और चेतना के आधार पर यह कह रहा हूँ। पाठक अपना अनुमान बगैर किसी पूर्वाग्रह के लगाए की बात सही लगती है या नही। हम पुराने को इतनी आसानी से छोड़ नही पाते। उसका असर मन और दिमाग दोनों पर होताहै और लंबा चलता है। उसकी अवहेलना उसका इलाज नहीँ।
इसके बाद अंगेज़ों का काल। उन्होंने तो डराया भी, भयभीत भी किया, जबरदस्त हिंसा की और साथ ही हीनता का भाव भी दे गए। अपनी भाषा, पहनावा, रहन सहन, रीति रिवाज सभी को हीन बना गए। यह दूसरा बड़ा घाव। पहले भय, ऊपर से हीनता। सोने में सुहागा। किसी ने कभी कहा था सोनिया गांधी अगर काली चमड़ी की होती तो क्या वह इतने वर्ष कांग्रेस की अध्यक्षा रह सकती थी? सोचने का मुद्दा है।
ज्योति बाबू, साम्यवादियों में ऊंचा नाम। वे अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ लन्दन में उद्योगपति स्वराज पाल की मेजबानी में बिताते थे। सोचना चाहिए इन बातों का हमारे घायल मन और दिमाग से कोई सरोकार है या नही?
मेरा मानना है इस देश का सबसे बड़ा मसला यह घाव है। इसे नॉइपाल साहब ने थे wounded civisation नाम से संबोधित किया। इस घाव का इलाज ज़रूरी है। लीपा पोती से नही होगा। हमारी तथा कथित हस्तियां - फिल्मों वाली, लेखकों और शायरों वाली जमात, और तथाकथित बुद्धिजीवियों की जमात - इनको एक हद तक सफलता (लोकप्रियता) तो मिल गई है पर इसका यह मतलब नही निकालना चाहिए कि इनका घाव भर गया है। नही इन्होंने घाव को छुपाने की तरकीब (makeup से) निकाल ली है। बस।
इसका इलाज अगर किसी के पास है तो घायल 'साधारण' के पास ही है। 'साधारण' को ही संकोच दूर करके - नेताओं, बुद्धिजीवियों, पंडों और मुल्लों और तथाकथित 'हस्तियों' से/के प्रभाव से अपने को मुक्त करके पहल लेनी होगी। याद रहे गाँधी जी इस 'साधारण' को बहुत ऊँचा मानते थे, सम्मान करते थे (झूठा सम्मान, बनावटी नही) और उनसे सीखते थे।
इसके बाद अंगेज़ों का काल। उन्होंने तो डराया भी, भयभीत भी किया, जबरदस्त हिंसा की और साथ ही हीनता का भाव भी दे गए। अपनी भाषा, पहनावा, रहन सहन, रीति रिवाज सभी को हीन बना गए। यह दूसरा बड़ा घाव। पहले भय, ऊपर से हीनता। सोने में सुहागा। किसी ने कभी कहा था सोनिया गांधी अगर काली चमड़ी की होती तो क्या वह इतने वर्ष कांग्रेस की अध्यक्षा रह सकती थी? सोचने का मुद्दा है।
ज्योति बाबू, साम्यवादियों में ऊंचा नाम। वे अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ लन्दन में उद्योगपति स्वराज पाल की मेजबानी में बिताते थे। सोचना चाहिए इन बातों का हमारे घायल मन और दिमाग से कोई सरोकार है या नही?
मेरा मानना है इस देश का सबसे बड़ा मसला यह घाव है। इसे नॉइपाल साहब ने थे wounded civisation नाम से संबोधित किया। इस घाव का इलाज ज़रूरी है। लीपा पोती से नही होगा। हमारी तथा कथित हस्तियां - फिल्मों वाली, लेखकों और शायरों वाली जमात, और तथाकथित बुद्धिजीवियों की जमात - इनको एक हद तक सफलता (लोकप्रियता) तो मिल गई है पर इसका यह मतलब नही निकालना चाहिए कि इनका घाव भर गया है। नही इन्होंने घाव को छुपाने की तरकीब (makeup से) निकाल ली है। बस।
इसका इलाज अगर किसी के पास है तो घायल 'साधारण' के पास ही है। 'साधारण' को ही संकोच दूर करके - नेताओं, बुद्धिजीवियों, पंडों और मुल्लों और तथाकथित 'हस्तियों' से/के प्रभाव से अपने को मुक्त करके पहल लेनी होगी। याद रहे गाँधी जी इस 'साधारण' को बहुत ऊँचा मानते थे, सम्मान करते थे (झूठा सम्मान, बनावटी नही) और उनसे सीखते थे।
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