Tuesday, December 17, 2019

हम लोगों में, विशेषकर मध्यम वर्ग और उससे ऊपर वाले तबके में, एक अजीब तरह का बनावटीपीना, एक असहजता आ गयी है। हम सहजता खो चुके हैं। हर व्यक्ति जो है, उससे अलग कुछ प्रदर्शित करता है।
कुछ 20 वर्ष पहले मसूरी के अंग्रेज़ी स्कूलों के बच्चों का इंटरव्यू किया था। एक तरफ वे स्कूल थे जहां देश के बड़े और छोटे शहरों के मटेरिअलिस्म की दौड़ में लगे लोगों के बच्चे पढ़ते हैं। दूसरी तरफ वुडस्टॉक स्कूल के बच्चे जो विदेश में रहते वे पढते थे। इन दोनों तरह के बच्चों में एक बड़ा फर्क दिखा। वुड स्कूलके बच्चे सहज थे भले ही थोड़े बदतमीज़ ज़रूर थे। पर जो थे, वे थे यानी उनमे बनावटीपना नहीं था। दूसरे स्कूलों के बच्चों में सहजता नहीं एक बनावटीपन था। वे या तो शर्मालू थे या "स्मार्ट' दिखाने की चेष्टा करते पाए गए।

कल एक दूर के रिश्तेदार परिवार जो पिछले लगभग 50 बर्षो से विलायत में रहते है। एडिनबर्ग में। डॉक्टर हैं। वे थे और उनकी दो बड़ी उम्र की लड़कियां। एक लड़की का पति भी था - मूलतः बँग्लादेसी। अच्छा खासा समृद्ध परिवार। पर उनसे बात करके, उनकी सरलता, सहजता देख कर अपने देश के उसी तबके के लोगों से तुलना करने से अपने को बचा न सका। और इस तुलना ने मन को दुखी ही किया। कहाँ चली गई हमारी सहजता? क्या सहजता और आत्मविश्वास में संबंध है?

1 comment:

राजेंद्र कुमार अग्रवाल । said...

बहुत ही सटीक विश्लेषण । सहजता खोने के बाद का खालीपन महसूस कर रहा हूं। आप के लेख ने बनावटी के एहसास को जीवंत कर दिया ।