Monday, December 12, 2016

ध्रुवीकरण से हट कर सोचने की ज़रूरत



ध्रुविकरण से हट कर सोचने की ज़रूरत
सिद्ध के स्कूलों में पढ़ाते पढ़ाते एक दिन ख्याल आया कि हम शिक्षा के नाम पर दिमागी रूप से बच्चों को गुलाम बना रहे हैं। उन्हे स्वतन्त्र बनाने की जगह उन्हे परतंत्र बना रहे हैं। बहुत से ऐसे उपक्रम हम (शिक्षक) कर देते हैं जिससे बच्चे के मन और दिमाग पर एक भयंकर हिंसा हो जाती है और उसका असर ताउम्र रहता है। मैं मार-पीट की बात नहीं कर रहा, उसकी बाते तो हमारे शिक्षा से जुड़े activist करते ही रहते हैं। जिसकी बात मैं कर रहा हूँ वह गंभीर मसला है जिसका RTE की वकालत करने वालों को भान ही नहीं है। मैं उस हिंसा की बात कर रहा हूँ जो बौद्धिक और मनोवैज्ञानिक दोनों रूप से घायल करती है। यह काम कई दशकों से चल रहा है, हो सकता है एक सदी से भी ज़्यादा से। इसलिए हम में से कई, जो अपने को पढ़ा-लिखा समझदार मानते हैं, उनमे से अधिकांश नहीं तो भी एक बड़ी संख्या, स्वयं इस हिंसा की मार से पीड़ित है।
यह लेख शिक्षा पर नहीं है इसलिए जिस बात का यहाँ प्रसंग है उससे जुड़ा एक उधारण देना उचित होगा। भाषा के सत्र में एक ऐसी गलती हम करते हैं, उससे भी बढ़ कर मैं इस गलती को झूठ और हिंसा की श्रेणी में रखना चाहूँगा। भाषा (कोई भी हो) में हम विपरितार्थ पढाते हैं : काला/ गोरा या सफ़ेद; ऊपर/ नीचे; अमीर/ गरीब; छोटा/ बड़ा; दिन/ रात; इत्यादि। फिर बार हास्यास्पद रूप से आगे बढ़ती है: पुरुष/ महिला; माँ/ बाप; भाई/ बहन। यकीन न हो तो पूछ कर या पाठ्यपुस्तक खोल के देख लीजिये। इससे एक दिमागी अभ्यास जो बच्चे के मन में बैठ जाता है, वह है, हर चीज़ को विपरीत या विकल्प के रूप में देखना। जबकी वास्तविकता यह है कि चीजे विपरीत नहीं, भिन्न होती हैं। काला/ सफ़ेद भी विपरीत नहीं अलग अलग रंग हैं। माँ/ बाप का तो कहना ही क्या?
स्कूल से आगे की शिक्षा में भी फर्क या भेद को ही अधिक अहमियत दी जाती है, समानता को नहीं। जबकी दो चीजों को समझने के लिए भेद और समानता दोनों को समझना ज़रूरी है। मसलन पुरुष और महिला।
नेहरू जी की प्रचीलित और लोकप्रिय उक्ति : एकता में विविधता की वजह से विविधता को महिमा मंडित तो किया जाता है पर पढ़ाते वक्त भिन्नता को न समझा कर, दिमाग को ध्रुवों में सोचने का अभ्यास करवा दिया जाता है। और संस्कृति, जिसमे असली विविधता झलकती है को पूरी तरह बदनाम कर दिया गया है। वह तो स्कूल के या सरकारी आयोजनों के अवसर पर बंद बक्सों से भूले हुए कपड़ों और सांस्कृतिक गीतों की तरह यदा कदा बाहर निकाली जाती है और भौंडे और हास्यास्पद ढंग से पेश की जाती है।
शिक्षा जगत का एक और योगदान है। यह (अंध) विश्वास भर देना की वर्तमान, अतीत से बेहतर होता है और भविष्य निश्चित ही वर्तमान से बेहतर होगा; जितना पुराना, उतना गड़बड़, जितना नूतन उतना अच्छा। इसमे फिर दिमाग लगाने की ज़रूरत नहीं। कोई अगर यह कहता है की पहले कैंसर या एड्स नहीं होता था तो तुरंत 10-20 ऐसे कहने वाले मिल जाएँगे कि पहले पता नहीं चलता होगा। उन्हे न कोई जानकारी की ज़रूरत है न ज्ञान की; उनका आधार या विश्वास है कि जितना नूतन उतना अच्छा। इसलिए जब भी आज की व्यवस्था पर, विकास की परिकल्पना पर, लिब्रलिस्म पर, गंभीर प्रश्न खड़े होने लगते हैं तो लोग इसका अर्थ, पीछे जाना मान लेते हैं और पीछे जाना उन्हे फायावह लगने लगता है। इनके लिए आगे का विकल्प पीछे, ऐसा ही पढ़ाया गया है।
मजे की बात यह है कि इनमे से बहुत से लोग महात्मा गांधी को बड़े सम्मान और आदर्श के रूप में भी देखते हैं। महात्मा की बहुत सी सोच विशेषकर उनकी आधुनिक तकनीक को लेकर जो सोच थी वह तो इनके पैमाने से पीछे ले जाने वाली ही होनी चाहिए। पर यह पीछे-आगे सोचने वाले लोग जिन्हे पीछे जाना इतना फयावह लगता है महात्मा गांधी की पूरी बात को या तो समझते नहीं या फिर अपने इस विरोधाभास को नज़रअंदाज़ करते हैं।  
यह दो ध्रुवों से हट कर न सोच पाना, एक मानसिक रोग है जिससे अधिकतर आधुनिक समाज ग्रसित है। यही कारण है की दुनिया की राजनीति में ढकोसले का, फरेब का, बोलबाला ज़्यादा ही हो गया जिससे एक तरफ तो लोग थक गए हैं और दूसरी तरफ कुछ अच्छा सोचने वाले भी अपने (दिमागी) कटघरों से बाहर नहीं आ पा रहे। जिसका फायदा, फिलहाल तो, कुछ सिरफिरी शक्तियाँ को मिल रहा है। ट्रम्प, केजरीवाल और मोदी इसी प्रक्रिया का परिणाम हैं। दूसरी तरफ शब्दों और असलियत में इतना फासला आ गया है, कि लोग इस फरेब को पहचानने लगे हैं। घोटाला करो और सेक्युलर राजनीति, वोट बैंक की राजनीति, भी साथ साथ करो - इस फरेब को लोग अब समझने लगे हैं। वैसे तो राजनीति के क्षेत्र में एक भयंकर अभाव है, देश में ही नहीं दुनिया में। और यह कमी कम से कम पिछले 35-40 वर्षों से तो रही ही है और लगातार बढ़ रही है, पर अब इंतिहा हो गई है।
अब राजनीति से जुड़े कुछ समझदार लोगों को लिबरल मुहावरों की कठोर समीक्षा करनी चाहिए। धर्म और सांकृतिक पहलुओं का ठेका उन्हे भाजपा को नहीं सौंप देना चाहिए। भारत, बावजूद आधुनिकता और बाज़ार की आँधी के, अभी भी अपनी छोटी छोटी संस्कृतियों की वजह से विविधता से भरा है। तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद हमारा साधारण आदमी – हिन्दू और मुसलमान, अपनी अपनी मान्यताओं के साथ – धर्मभीरू है, उसके पास अभी भी मूल्य बचे हैं जिनका सरोकार उसकी ज़िंदगी से अभी भी है, वह उन्हे आम ज़िंदगी में जीने का प्रयास करता है। यह बावजूद आसाराम बापुओं के, मैं कह रहा हूँ। आसाराम को जेल हो सकती है पर राजनीति के बड़े लोगों को और बड़े अफसर के साथ ऐसा हो भी सकता है यह कल्पना के बाहर सा हो गया है। राजनीति में ऊपर से नीचे तक हर प्रकार के भ्रष्टाचार में लिप्त कई एक सूरमा है, हरेक दल में, जो छाती फुला कर घूमते हैं ज़ेड कटेगरी की सुरक्षा के साथ और संसद में बड़ी बड़ी बाते करते हैं। लोग यूंही मोदी जी की छप्पन इंच की छाती को बदनाम करते हैं। राहुल गांधी या चिदम्बरम, या लालू, या शरद पवार या शरद यादव या येचूरी या ममता किसी को भी ले, कोई किसी से कम नहीं। लोगों को सब दिखता भी है पर वे लाचार हैं।
सेक्युलर राजनीति, लिबरल राजनीति सिर्फ मूल्यों की बात करती है, जीती नहीं है। और उसके मूल्यों मे संस्कृति और धर्म दोनों नदारद ही नहीं, उन्हे इनसे कोई सरोकार भी नहीं है, बल्कि चिढ़ सी है। यह भारत में चलने वाला नहीं बल्कि यहाँ तक भी कहना शायद उचित ही होगा कि दुनिया में कहीं भी नहीं चलेगा। रूस में यह अब साफ दिखाई दे रहा है। वहाँ का चर्च ज़िंदा है और बड़ी मात्रा में लोग वहाँ जाते हैं। चीन का भी यही हाल है बावजूद तानाशाही और सांस्कृतिक क्रांति के। और तो छोड़िए चीन में दलाई लामा को मानने वालों की भी संख्या छोटी मोटी नहीं है। मैं खुद एक चीनी लड़की से मिल चुका हूँ जो दलाई लामा की भक्त है। जैसा गांधी जी ने कहा था धर्म में ठगी होगी पर आज की राजनीति और आज के बाज़ार की ठगी का उससे कोई मुक़ाबला नहीं। यह नई ठगी धर्म की ठगी से कई गुना ज़्यादा है और हिंसक है।
अब शायद समय आ गया है कि भले ही कुछ ही लोग बैठे, पर घिसे पीटे लिबरल मुहावरों और ध्रुवीकरण की सोच से बाहर निकल कर गंभीर चिंतन करें। एक साधारण (सर्वहारा नहीं, क्योंकि वह भी मुहावरा बन गया है) भारतवासी को बेचारगी से नहीं, सम्मान की दृष्टि से देखते हुए, उससे कुछ सीखने की चाह रखते हुए, जिस प्रकार महात्मा गांधी करते थे। उनके लिए भारत का साधारण आदमी बेचारा नहीं था सम्मानजनक था।

पवनकुमार गुप्त
त्रयोदशी, शुक्ल पक्ष, मार्गशीर्ष 2073
दिसंबर 2016                

No comments: