Sunday, December 22, 2019

जब गाँधी यह कहते हैं बिना धर्म की राजनीति मृतक शरीर के समान है तो उन लिब्रलों को, जो गाँधी के नाम को जब तब लेते रहते हैं, इसे भी समझना चाहिए। गाँधी यह भी कहते है कि उन्होंने धर्म का पाखण्ड देखा है और राजनीति में भी पाखण्ड देखा है पर राजनीति के पाखण्ड के सामने धर्म का पाखण्ड छोटा है। इन दोनों बातों का संज्ञान आज उन लोगों को लेना चाहिए जो देश को लेकर चिंतित हैं।

अगर पूरी तरह सामयिक समस्या पर ही अर्जुन की तरह आंख लगी रहेगी तो हम पेंडुलम की तरह झूलते रहेंगे। दृष्टि तो लंबी करनी पड़ेगी। देश की राजनैतिक मंच पर 70 साल से अधिक से चल रहे नाटक के पैटर्न को समझना भी ज़रूरी है। राजनैतिक खेल में आई सडाँध की तह तक जाना पड़ेगा। लोकतन्त्र नाम और लोगों को कैसे बेवकूफ बनाया जाए उसका पूरा विज्ञान अब कुछ लोगों ने पढ़ लिया है। शुरुआत कांग्रेस से हुई। इसके आर्किटेक्ट नेहरू थे। उसके बाद धीरे धीरे अन्य दलों ने भी उनसे सीख लिया। अब तो प्रोफेशनल और विशेषज्ञ मैदान में उतर आए है। पहले राजीव गांधी के समय विज्ञापन कंपनियां और उनके लोग यह काम करते थे। अब अमरीका की तरह यहां प्रशांत किशोर जैसे भाड़े पर बिकने वाले विशेषज्ञ आ गए है। कभी भजपा को सलाह देते है, कभी कांग्रेस को, कभी तृणमूल को और पुराने समाजवादी नीतीश ने तो उन्हें मंत्रिपद या उससे भी बड़ा कोई ओहदा दे दिया है। ये भाड़े के टट्टू अब राजनीति पर टिप्पणी भी करते हैं और मीडिया इन्हें बड़ी तवज्जो दी कर सुनता है।

यह हाल है हमारी राजनीति का, गाँधी जी के शब्दोँ में मृतक शरीर का। गाँधी जी का नाम नीतीश से लेकर ममता,और भाजपा भी लेती है और शायद प्रशांत किशोर भी लेता होगा। उनके टेम्पररी  आका नीतीश तो लेते ही हैं। गाँधी जी जब धर्म कहते है तो उनका अर्थ व्यक्तिगत और सार्वजनिक और सार्वभौमिक नैतिकता से है। नैतिकता जिसे आज की राजनीति और विशेषकर पीछले 70 वर्ष के लिबरल सोच ने जिसे ज़मीन के बहुत नीचे गाड़ दिया है। इस नई सोच का कोई पैंदा नही, कोई परंपरा नही। यह शुद्ध रूप से व्यक्तिवाद में विश्वास करती है, उसे प्रमोट करती है। इसमें फ्रीडम माने स्वच्छंदता को खुली छूट है। गाँधी के धर्म में नैतिकता है जो खुली छूट नहीं। वहां संयम है, स्वच्छंदता नही। लिबरल सोच में इन अंकुशों की कोई जगह नही।

इस देश को उबरना है तो राजनीति को नैतिकता से जोड़ने के उपाय ढूंढने होंगे।

अभी ध्रुवीकरण का दौर चल रहा है और दोनों ध्रुव पर बैठी शक्तियों के हक में है यह ध्रुवीकरण। इसमे किसी एक को दोष देना भूल होगी। पर हमें आंखे खोल कर देखने की ज़रूरत है और दोनों तरफ के ढोंग से अपनेको बचा कर नैतिकता का जीवन और राजनीति में समावेश कैसे हो इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। पहले समझे फिर रास्ते भी निकलेंगे।

उपरोक्त लेख पुराने मित्र से लंबी चर्चा से प्रेरित है। ये मित्र वामपंथी विचार के रहे है पर गाँधी जी को भी खूब समझते है। वैसे नही जैसे गाँधी जी की संस्थाओं पर कब्जा जमाए लोग समझते है। देश के चंद खुले दिमाग और पैनी दृष्टि रखने वाले लोगों में से है ये मित्र। वाराणसी में रहते है। उन्हें धन्यवाद, नैतिकता वाली बात को खुलासा करने के लिए। लिबरल राजनीति में व्यक्तिगत मूल्यों की कोई जगह नही यहां तक तो मैं पहुंचा था। उन्होंने उसे आगे ले जाने में मदद की।

पवन कुमार गुप्त
दिसंबर 22, 2019
pawansidh. blogspot. com

1 comment:

Anil007 said...

श्रीमान् गुप्ता जी,
नमस्कार।
आज की परिस्थिति का संपूर्ण संकलन है आप के लेख में।

अनिल सिंह तोमर