Thursday, January 2, 2020

पढे-लिखों का अहंकार! तोबा! और बात, ये पढ़े-लिखे, साधारण की करते हैं। लोकतन्त्र है ना। ये साधारण मूर्ख हैं क्या? ये बस आपकी तरह बहस करना, दिखावा करना, छुपाना नहीं जानते। ये मूर्ख नहीं हैं। आप-हम  सार्वजनिक जीवन में राजनैतिक पैंतरा लेकर (झूठी) नैतिकता की बात करते हैं, और अंदर से खोखले होते हैं। ये नैतिकता का दावा किए बगैर हमसे-आपसे अपने निजी जीवन में ज़्यादा नैतिक होते हैं।

इन्होने अपने समाज में उसे एक सीमा के अंदर ठीक ठाक चलाने के लिए कुछ नियम बनाए जो हम पढे लिखों को समझ नहीं आते। (उदाहरण: खाप पंचायत के नियम - आसपास के गाँव के लड़के लड़कियों को लेकर नियम) और जो हमे समझ नहीं आए वह तो गलत होगा ही - यह हमारा अहंकार हमे बोलता है। हम पढे-लिखे जो हैं, अङ्ग्रेज़ी जो आती है, किताबे जो भर रखी हैं और थोड़ा बहुत पढ़ा भी होगा और उससे ज़्यादा ढोंग किया होगा। हमे "समाज" पसंद नहीं, हम तो व्यक्तिवाद के समर्थक हैं। नहीं तो हमारे संविधान का क्या होगा?  पर जब बजारवाद पर भाषण देना हो तो हम पढे लिखे व्यक्तिवाद की धज्जियां भी उड़ा देते हैं। हमारे वैचारिक दोगलेपन का क्या कहना?
यह हम पढे-लिखों की सच्चाई है। मेरे जैसे आलोचक की भी। यह कहाँ से आ गया हममें? अँग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी सोच से अभिभूत होने की वजह से? हम मुक्त नहीं हैं।

कोशिश करनी होगी। हमारे साधारण में जो कुछ अच्छा है, सुंदर है, सहज है - उसे पहले पहचानने की कूवत अपने में आए और फिर इस पर विचार हो कि वह आया कहाँ से होगा? इस पर शोध हो।

पवन कुमार गुप्त
जनवरी 2, 2020
pawansidh.blogspot.com

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