Thursday, January 2, 2020

हम पढे लिखे निकम्मे हो जाते हैं। एक भी ऐसा काम ठीक से नहीं आता जो जीने के लिए आवश्यक हो। आधुनिक तकनीक विहीन दुनिया में हमारा जीना दूभर हो जाय फिर भी अहंकार आसमान छूता है। इनमे सभी विकार, झूठ, फरेब, ईर्षा, द्वेष, भय, असुरक्षा (इसे CAA से न जोड़े), क्रोध, अहंकार इत्यादि इत्यादि सभी भारत के बगैर पढे लीखों से कहीं ज़्यादा मात्रा (मात्रा कहना शायद उचित नहीं, फिर भी) में पाया जाता है, फिर भी ये अपने को उनसे ऊंचा मानते जिनमे इनसे ज्यादा सहज नैतिकता है, जो इनसे ज़्यादा अच्छे हैं, जिनकी फिक्र का ये पढे लिखे (झूठा) दावा करते रहते हैं। ये उन्हे मूर्ख मानते हैं। इनका ज्ञान बहुदा इनकी पढ़ी-लिखी या अक्सर सुनी-सुनाई, जानकारी होता है पर ये भ्रम में रहते है कि ये बड़े ज्ञानी हैं। जो पढे लिखे नहीं वे अपना ज्ञान रखते हैं जो उन्हे परंपरा से, विरासत से मिला है। वे उससे अपना काम सदियों से चलाते रहे हैं और कुल मिला कर एक स्वस्थ जीवन जी पाये हैं। हम पढे लिखे जिस तरह हम जी रहे हैं, वैसे ज़्यादा दिन 50-70 वर्ष से अधिक शायद न जी पाये। पर्यावरण, युद्ध और आतंकवाद और अंतर्राष्ट्रीय उन्माद (अलग अलग शक्लों में) मूंह बाये खड़ा खड़ा है। फिर भी हमारा अहंकार।
पढ़ा लिखा ऐसे बात करता है जैसे उससे ज़्यादा जानकार, समझदार और कोई हो ही नहीं - नामी गरामी "हस्तियों" को छोड़ कर।
इनमे कूवत नहीं रही कि सनातन सत्य, जानकारी और मान्यता में फर्क कर सकें। ये "मानते" हैं पर भ्रम में रहते हैं कि "जानते हैं"। बिना पढ़ा लिखा मानने को मानना ही मानता है

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