Sunday, January 12, 2020

सुनने और सुनने में बड़ा फर्क है, जैसे पढ़ने और पढ़ने में। सुनते या पढ़ते तो हम सिर्फ शब्द हैं, पर फिर रक महत्वपूर्ण घटना घटती है, अपने अंदर। उस सुने या पढ़े शब्द या शब्दों का हममे से हरेक अर्थ निकालता है। यही बोलने और लिखने वाले के साथ प्रक्रिया होती है। शब्द एक ही होते हुए भी अलग अलग अर्थ हम निकालते हैं। कुछ तो संदर्भ की वजह से होता है। यहां तक कोई समस्या नही होती। पर जब हम अपने पूर्वग्रहों की वजह से दूसरे के अर्थ पर अपना अर्थ थोप देते हैं और इस गुमान में रहते हैं कि हम समझ गए तो गलाफ़हमी तो होती ही है, सम्प्रेषण होता ही नही और हम भुलावे में रहते हैं कि हमने समझ लिया।

आधुनिक शिक्षा ने अपने अंग्रेजीपरस्त और पश्चिम परस्त (पहले रूस और ब्रिटानिया और अब अमरीका) दिमाग को ध्रुवीकृत कर दिया है। दो परस्पर (मान लियेगये विपरीत ) ध्रुवों में चीज़ों को देखने के आदि हम अनजाने में ही आदि हो गए हैं। और सच या सही बहुदा विपरीत ध्रुवों में न हो कर कहीं और होता है।

पूर्वाग्रह हमें दूसरे को और सच्चाई को भी समझने में बाधा पहुंचाता है। यह मैंने कृष्णमूर्ती जी के अनुयायियों में, अनेक आध्यात्मिक  (धार्मिक से अलग) संगठनों में भी पाया। इनके अनुयायी आपसे मिलकर पहले इसे भांपने का प्रयास करते है कि आपके उनके खेमे  के प्रति कितनी श्रद्धा है। अगर आपको वे कमतर पाते हैं तो वे फिर आपकी अवहेलना करे लगते हैं, आपका विरोध सा भी होने लगता है। कम से कम आपको सुनना वे बन्द कर देते हैं या अपने ही अर्थो मी सुनते हैं, आपने जो कहा, आपका जो अर्थ था उसे नही सुनते। और अपने पर इतना गजब का विश्वास होता है कि अपने समझर पर शंका की कोई गुंजाइश भी नही रखते।

पवन कुमार गुप्त
जनवरी 13, 2020

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