Wednesday, January 22, 2020

भारत में दो मोटे मोटे वर्ग साफ दिखते हैं विशेषकर गैर मुसलमानों में। एक वो जो, जो कुछ थोड़ा बहुत पढ़ते हैं (जताते ज़्यादा हैं) या सुनते हैं, वह अधिकतर अंग्रेज़ी में होता है। उन्हें भारतीय भाषा में पढ़ने की आदत नहीं रही और/या उन्होंने मान लिया है कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने जैसा कुछ खास है ही नहीं। यह बात हिंदी भाषियों पर ज़्यादा लागू होती है। शायद इस रोग ने तमिल, कन्नड़, मलयालम, मराठी, गुजराती, बँगाली बोलने वालों पर कम असर किया हो। बिल्कुल नहीं किया हो, ऐसा नहीं है पर कमतर ज़रूर है।

और ऐसा लगता है कि ये जो अंग्रेज़ी ही ज़्यादा पढ़ते लिखते हैं उन्हें अमरीका की, ट्रम्प की, यूरोप की अधिक चिंता रहती है। अपने देश     और देश के साधारण की इन्हें ज़्यादा समझ नहीं है। साधारण को ये जातियों में बंटा पाते है और अधिनुक मूल्यों से अछूते पाते होंगे। इसी समझ से चुनावों के दौरान ये अपनी अटकल लगाते हैं और इन्हें न 2014 समझ आया और न 19।  उसके अलावा शायद ही ये साधारण को कोई तवज्जो देते दिखते हैं। उनके प्रति ज़्यादा से ज़्यादा बेचारगी का भाव इनके मन में रहता होगा। सम्मान का नहीं।

थोड़ी बहुत अंग्रेजी अपन को भी आती है वैसी जैसी इस पढ़े लिखे वर्ग, जिसकी ऊपर बात की, पर मैंने कुछ समय पहले एक निर्णय किया कि मैं ज़्यादा हिंदी में ही लिखूंगा। उनके लिए लिख कर फायदा भी कुछ नहीं। दिमाग बन्द होते हैं उनके। अपन के जानने वाले बहुतेरे उसी वर्ग से आते हैं। पर मैंने अब उनसे उम्मीद छोड़ दी है। वे सोचते हैं कि वे सोचते हैं, सोचते हैं कि पढ़ते और सुनते हैं पर ऐसा नहीं है। उनके दिमाग बन्द हो चुके हैं। वे फैशन परस्त हैं। कपड़ों और स्टाइल के अलावा विचारों का फैशन जो अन्य चीज़ों की तरह पश्चिम के लिब्रलों से आयातित होता है जिसके व्यापारी वहाँ नॉम चॉम्स्की से लेकर अपने यहां रामचन्द्र गुहा, अरुंधति राय, बरखा दत्त, रविश कुमार इत्यादि है। रविश हिंदी के होते हुए भी अब वहाँ से ताजपोशी करवा कर आ चुके है।

जनवरी 23, 2020
pawansidh.blogspot.com

1 comment:

Unknown said...

यही आज के तथाकथित बुधिजीवी समाज का सही चित्रण है। मेरे समझ से अपने विचारों की अभिव्यक्ति इसी सहज भाषा मे पृकट करना सरल है।