Sunday, January 26, 2020

मुसलमानों को 70/75 वर्षों से कांग्रेस ने बेवकूफ बना कर उनके वोट अपनी झोली में किये। बाद में यह खेल, जनता दल की सरकार के बाद, अन्य दल भी समझ गए और खेलने लगे। इन दलों ने कांग्रेस से भ्रष्टाचार और अपने बेटे-बेटियों को राजनीति में आगे बढ़ाने, dynastic politics, दल बदलू राजनीति, इत्यादि इत्यादि हथकंडे भी सीखे। कम्युनिस्ट को धीरे धीरे यह समझ आ गया कि इस देश में वे सत्ता में तो आ नहीं सकते पर पीछे के दरवाजे से वे सत्ता पर काबिज हो सकते है। इसमें उन्होंने कांग्रेस का और कांग्रेस ने उनका, दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। संस्थाओं, सरकारी, यूनिवर्सिटी इत्यादि पर कॉम्युनिस्टों का कब्जा हो गया या होने दिया गया। यही कॉम्युनिस्ट जो जनता के बीच की राजनीति करने में नाकाबिल रहे ngo में भी घुसे।

पहले 60 और 70 के दशक में इन्हें रूस की शह मिली और रूस के पतन के बाद यही तबका अमरीका द्वारा पोषित होने लगा। इसका एक फायदा और इन्हें मिला। अब ये अपने life style भी उच्च वर्ग जैसी जी सकते थे। अमरीका की छत्र छाया में अब इन्हें वह नाटक करने की भी ज़रूरत नही रही। पूरी अय्याशी और सिद्धांत और गरीबों की बात अब एक साथ होनी संभव हो गई।

कांग्रेस ने जो देश पिछले 70/75 वर्षों में बनाया वह अनजाने में ही सही मोदी की सरकार आने के बाद, उसे चुनौति मिलने लगी। मोदी जी को इसकी कोई साफ समझो, ऐसा नही लगता पर क्योंकि वे एक अलग वर्ग से आते है इसलिए सम्भव है कि एक तर्क से परे की intuitive समझ हो। दूसरीबात यह कीमोदी और भाजपा की राजनीति कांग्रेस की राजनीति की प्रतिक्रिया में है। इसे मुसलमानों को समझने की ज़रूरत है।

नही समझेंगे तो क्रिया-प्रतिक्रिया का खेल चलते रहेगा। कुछ लोग हाय हाय करते रहेंगे और कुछ अच्छी अच्छी बातें।

जनवरी 26, 2020

Wednesday, January 22, 2020

हमारा इतिहास बोध लगभग खत्म सा हो गया है। अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत के चक्कर में। पढ़े लिखे समूह में  एक मोटी समझ यह बन गई है कि इतिहास में/से सीखने समझने जैसा कुछ नहीं है। हमारे यहाँ विशेषकर , सिवाय गंध, कूड़े, खराबी, छुआ छूत, गरीबी, भूखमरी, दीनता के अलावा कुछ है नहीं। और संसार के स्तर पर भी यह मान लिया गया है कि हमने तो हर क्षेत्र में पहले के मुकाबले "प्रगति" ही की है, तो विगत को देखने, समझने का कया फायदा? यह मोटी समझ बन गई है।

जब भी मैं अपने यहाँ के किसी उजले पक्ष की कोई बात करता हूँ तो यह तोहमत लगती है कि ठीक है पर सब कुछ अच्छा ही अच्छा था, ऐसा भी नहीं। तो भई, ऐसा कौन कह रहा है? मैं तो मोटे तौर पर बने narrative को चुनौती दे कर कुछ और देखने को प्रेरित करने की कोशिश करता हूँ। बस। मुझे जो narrative प्रचलन में आ गया है, जो सत्य नहीं है, जो आम पढ़े लिखे के दिमाग पर छा सा गया है उसे थोड़ा हिलाना डुलाना है। वह भी हो सके तो। सब कुछ अच्छा तो कभी भी नहीं रहा होगा। न राम के ज़माने में, न कृष्ण के ज़माने में, न बुद्ध और महावीर के ज़माने में और न ही ईसा या मोहम्मद के ज़माने में। सब कुछ अच्छा कुछ होता नही। साधारण ही श्रेष्ठ है और साधारण अपनी कमियाँ और त्रुटियां लिए होती हैं। प्रश्न सिर्फ यह होता है कि कुल मिला कर कैसा हो। सब कुछ अच्छा या सब कुछ बुरा यह either/or वाली आधुनिक सोच है जो सिर्फ असत्य के बीच झूलती रहती है। एक असत्य से दूसरे असत्य की ओर पेंडुलम की तरह। क्योंकि सत्य छोर या extreme पर नहीं होता। उसे कहीं बीच में, दाँये बायें तलाशना पड़ता है। मेहनत करनी होती है।

पर विगत से सम्बंध बनाये बगैर, अपना व्यक्तिगत विगत और सामाजिक विगत, दोनों, आगे का रास्ता खुलता नहीं। यह एक सत्य है। विगत को समझे बिना, उससे सुलह किये बिना, बगैर लाग लपेट के उसे देखे बिना, आगे के रास्ते खुलते नहीं।विगत पर झूठा गर्व जितना खतरनाक है, उतना ही खतरनाक या उससे ज़्यादा हसि उसे दुत्कारना, उससे नफरत करना।

हमारी आधुनिक शिक्षा ने हमारे विगत से हमारा या तो सम्बन्ध विच्छेद कर दिया है या उससे नफरत करना सीखा दिया है और अब उसकी प्रतिक्रिया में कुछ लोग उसका महिमामंडन करने लगे हैं। कुछ चीज़ें गौरवशाली होते हुए उसके दूसरे पक्षों को भी देखने की ज़रूरत है।

जनवरी 23, 2020
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भारत में दो मोटे मोटे वर्ग साफ दिखते हैं विशेषकर गैर मुसलमानों में। एक वो जो, जो कुछ थोड़ा बहुत पढ़ते हैं (जताते ज़्यादा हैं) या सुनते हैं, वह अधिकतर अंग्रेज़ी में होता है। उन्हें भारतीय भाषा में पढ़ने की आदत नहीं रही और/या उन्होंने मान लिया है कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने जैसा कुछ खास है ही नहीं। यह बात हिंदी भाषियों पर ज़्यादा लागू होती है। शायद इस रोग ने तमिल, कन्नड़, मलयालम, मराठी, गुजराती, बँगाली बोलने वालों पर कम असर किया हो। बिल्कुल नहीं किया हो, ऐसा नहीं है पर कमतर ज़रूर है।

और ऐसा लगता है कि ये जो अंग्रेज़ी ही ज़्यादा पढ़ते लिखते हैं उन्हें अमरीका की, ट्रम्प की, यूरोप की अधिक चिंता रहती है। अपने देश     और देश के साधारण की इन्हें ज़्यादा समझ नहीं है। साधारण को ये जातियों में बंटा पाते है और अधिनुक मूल्यों से अछूते पाते होंगे। इसी समझ से चुनावों के दौरान ये अपनी अटकल लगाते हैं और इन्हें न 2014 समझ आया और न 19।  उसके अलावा शायद ही ये साधारण को कोई तवज्जो देते दिखते हैं। उनके प्रति ज़्यादा से ज़्यादा बेचारगी का भाव इनके मन में रहता होगा। सम्मान का नहीं।

थोड़ी बहुत अंग्रेजी अपन को भी आती है वैसी जैसी इस पढ़े लिखे वर्ग, जिसकी ऊपर बात की, पर मैंने कुछ समय पहले एक निर्णय किया कि मैं ज़्यादा हिंदी में ही लिखूंगा। उनके लिए लिख कर फायदा भी कुछ नहीं। दिमाग बन्द होते हैं उनके। अपन के जानने वाले बहुतेरे उसी वर्ग से आते हैं। पर मैंने अब उनसे उम्मीद छोड़ दी है। वे सोचते हैं कि वे सोचते हैं, सोचते हैं कि पढ़ते और सुनते हैं पर ऐसा नहीं है। उनके दिमाग बन्द हो चुके हैं। वे फैशन परस्त हैं। कपड़ों और स्टाइल के अलावा विचारों का फैशन जो अन्य चीज़ों की तरह पश्चिम के लिब्रलों से आयातित होता है जिसके व्यापारी वहाँ नॉम चॉम्स्की से लेकर अपने यहां रामचन्द्र गुहा, अरुंधति राय, बरखा दत्त, रविश कुमार इत्यादि है। रविश हिंदी के होते हुए भी अब वहाँ से ताजपोशी करवा कर आ चुके है।

जनवरी 23, 2020
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हमारे बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों और इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों और आदिवासियों को लेकर एक्टिविज्म कर रहे महान लोगों को कभी रुक कर इस पर विचार करना चाहिए कि हमारे आदिवासियों के पास इतनी चांदी कहाँ से आई। इतनी खराब हालत में भी एक आदिवासी महिला 2 या 3 किलो चांदी के गहने अपने बदन पर पहने रखती है। उन्हें विचार करना चाहिए कि आखिर उस 'बेचारी' के पास इतनी चाँदी आई कहाँ से? और ख्याल रहे कि जहाँ तक मेरी समझ है भारत में चाँदी की एक भी खान नहीं है। तो वे विचार करें यह कहाँ से आई होगी? अगर ईमानदार खोज होगी तो शायद उन्हें भारत के समाज और यहाँ की व्यावसथाओं की कुछ समझ मिले। यहाँ के इतिहास और यहाँ की सभ्यता की कुछ अच्छाइयों की समझ बने। शायद....

जनवरी 22, 2020
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भारत में कभी साधारण ही श्रेष्ठ हुआ करते थे। आम कारीगर अपना मालिक था, किसी के मातहत काम नहीं करता था और ये कारीगर उन जातियों से होते थे जिन्हें आज हम पिछड़ा और दलित की श्रेणी में डाल दिये हैं। यहाँ की समृद्धि जिसे पश्चिम के अर्थशास्त्र के इतिहासकार ऊंचे दर्जे की इन साधारण लोगों की वजह से थी न कि यहाँ के राजे महाराजों की वजह से। यह भ्रम की यहाँ हज़ारों वर्षों से इन जातियों पर अत्याचार होते रहे हैं, इस तथ्य के साथ मेल नहीं खाते, पर हम इन विरोधाभासों को देख कर अपने पूर्वग्रहों को फिर से जांचने को और बदलने को तैयार ही नहीं। अगर अपनी इतिहास दृष्टि बदलनी पड़े तो शायद अपनी राजनैतिक दृष्टि भी बदलनी पड़ सकती है, उसका डर, सच्चाई को देखने से डरता है।

आजकल शशि थरूर अंग्रेज़ों की लूट पर खूब बोलते हैं। अच्छी से ज़्यादा जटिल और अंग्रेजों की नकल वाले उच्चारण में बोलते हैं तो सम्भवतः 'लिबरल और सेक्युलर' भी सुन लेते होंगे। उन्हें बहुत अच्छा तो नही लगता होगा, ऐसा मेरा अनुमान है। पर थरूर को सुन लेते होंगे। इसके पहले कितने ही लोगों ने यही सब कहा है पंडित सुंदर लाल,धरमपाल इत्यादि पर उन्हें कौन पढ़ता है? चलो इस बहाने इस पर बात तो सामने आई। पर थरूर भी 2 और2 नही जोड़ कर दिखाते। लूट हुई, भयंकर लूट हुई यह तो बताते हैं पर यह समृद्धि आई कहां से उसकी बात नही करते। न इसकी की अगर यह समृद्धि उन कारीगर जातियों की वजह से थी जिन्हें हम असज पिछड़ा औऱ दलित कहते हैं तो फिर यह कैसे संभव है कि ये इतनी दयनीय हालत में हों और उनपर इतने ज़ुल्म होते हों।

हमारे सेक्युलरों को हमारे विगत में कुछ भी अच्छा हो ऐसा नहीं लगता। सब कुछ गलत था। औरतों पर अत्याचार, दलितों पर अत्याचार, पिछड़ों पर अत्याचार, समाज अंधविश्वास में डूबा हुआ, ब्राह्मणों का आडंबर और उनकी लूट, मनु स्मृति समाज को अंधकार में डुबोती हुई और न जाने क्या क्या। अब ऐसे लोगों के पास समाज को लेकर क्या सपने हो सकते हैं? इनकी कल्पना में क्या आ सकता है? जो आता होगा विदेश से ही आता होगा। और कहाँ से आएगा?

और इनकी अपनी पहचान? वह कैसी  होती होगी, या वे इसके लिए कौन सी कोशिश करते होंगे। समाज की कल्पना तो इनके पास  हो ही नहीं सकती क्योंकि इस आधुनिक संसार में समाज है ही नहीं। सिविल सोसाइटी है, जो समाज नहीं। तो इनके दिमाग में समाज यानि व्यक्तियों का समूह। और व्यक्ति की आत्म छवि होड़ के बगैर, तुलना के बगैर बन सकती है क्या? जिस सभ्यता में व्यक्ति व्यक्ति से होड़ करे बगैर उसका वजूद ही न हो उस जगह भाईचारे और सहयोग की बात ढोंग के अलावा कुछ भी नहीं।

जनवरी 22, 2020
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Friday, January 17, 2020

एक अलग विशिष्ट जाति पिछले 200 वर्षों में बनी है जिसके बारे में पिछली पोस्ट में लिखा था और ब्लॉग पर भी डाला था। हालांकि ब्राह्मण कोई जाति नही होती लेकिन यह नई जाति ब्राह्मणों का नया अंग्रेज़ी संस्करण है। ये अपनर को दूसरों से अलग मानते हैं - ऊंचा और विशिष्ट। ब्राह्मणों की ही तरह, दूसरे उनको ऊंचा या विशिष्ट माने या न माने, ये अपने को मानते है। अन्य समाज कैसे दुनिया को देखे, उसके मूल्यांकन के मापदंड क्या होंगे, यह नई जाति वाले उसका ठेका लिए होते हैं। पुराने ब्राह्मण जैसे शास्त्रों का हवाला देते थे और अपने को उसका धारक वाहक मानते थे ये लोग आधुनिक विज्ञान के ठेकेदार बन गए हैं। समाज शास्त्र को भी इन्होंने समाज विज्ञान बना दिया है। जैसे ब्राह्मणों में अधिकतर को शास्त्रों का विशेष ज्ञान नहीं होता था पर लोगों को धोखे में रखते थे, बहुदा खुद भी धोखे में रहते थे 10-50 मंत्रों को रट कर, वैसे ही आज के ये नए ब्राह्मण भी हैं। इनमे से अधिकतर को विज्ञान वैगरह की ज़्यादा जानकारी नही होती। आधुनिक विज्ञान तो अब सापेक्षता और निरपेक्षता की गुत्थी सुलझाने में अपने बाल नोंच रहा है। subjectivity से छुटकारा पाने को बेचैन है , ऑब्जेक्टिविटी का पता ही नही चल पा रहा। पर ये नई जाति वाले अपने को ऑब्जेक्टिव और rational कहते है। बाकि सब इनके लिए पिछड़ा, दकियानूसी, अंधविश्वास इत्यादि इत्यादि होता है।

जनवरी 17 2020

Thursday, January 16, 2020

मुझे नही मालूम कि विगत में जातियां बनती मितटी रही हैं  या नहीं पर हमारे य़ाहां एक नई जाती बन गई हैं. जातियों  में एक समान धार्मिता होती  हैं. उनके देवी देवता एक होते हैं. उनके तीज त्योंहार, आचार व्यवाहार इत्यादी एक जैसे होते हैं. उनकी सामाजिक मान्यतायें  एक जैसी होती  हैं . वे आपनी जाति के लोगों के साथ रहना चाहते हैं. एक जाति  के लोग अलग अलग स्थानों पर भी रहते हैं पर एक दूसरे को समझते हैं, ज़रूरत में एक दूसरे का सहयोग करते  हैं. जाति  के लोगों की आपस में बने या न बने पर दूसरे लोगों से खतरा लगे तो सब एक दूसरे का साथ देते हैं.

हमारे यहां इन  सभी लक्षणो के साथ एक नई जाति बनी हैं पिछली एक आध  सदी  में. ये अपने को दूसरे लोगों से ऊंचा मानते हैं। इनमें भयंकर अहंकार पाया जाता है। ये देश के अन्य लोगों को मूर्ख, दुष्ट, नासमझ, ओछा, अपने से हीन इत्यादि मानते हैं। इनके पास हमेशा सत्ता होती है। सीधे सीधे सत्ता न भी ही तो भी सत्ता की बागडोर बहुत हद तक इनके पास होती है। इन्हें विदेश में, विशेषकर पश्चिम में बैठे इसी जाति के भाई बहनों से  हर प्रकार की मदद और प्रोत्साहन (वहां की बड़ी यूनिवासिटियों मैं नौकरी से लेकर भाषण करने के न्यौते, बड़े बड़े पुरुस्कार, पैसे भी) मिलता रहता है। इससे इनकी साख अपनी जाति में तो बढ़ती ही है, दूसरे लोग भी प्रभावित होते रहते हैं। इनका बड़ा आतंक है। ये अफवाह फैलाने में, भ्रम फैलाने में, बात को घुमा फिरा कर उसके अर्थ को अनर्थ करने में, प्रचार करने में, अपने प्रति सहानुभूति मिलवाने में माहिर हैं। ये ऐसा दिखाते हैं कि इन्हें देश, दुनिया और लोगों की जितनी चिंता है, उतनी किसी अन्य तबके को नहीं। पर असल में इन्हें अपने हाथ से सत्ता न निकल जाए इसकी चिंता रहती है। इन्हें या तो अपने जैसे ही जाति वाले लोग पसंद हैं या वो जिन पर ये दया कर सकें, जिन पर ये उपकार करने का नाटक कर सके, जो इन्हें बड़े सम्मान से देखे, माई बाप माने। शेष लोगों से इन्हें नफरत है।

इनकी पैदाइश 19वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में अंग्रेजों द्वारा हुई। कह सकते है यह उन्ही की नाजायज संतान हैं। आजकल इन्हें लेफ्टिस्ट, लिबरल, सेक्युलरिस्ट इत्यादि नामो से संबोधित किया जा सकता है।

पवन कुमार गुप्त
जनवरी 17, 2020
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Sunday, January 12, 2020

सुनने और सुनने में बड़ा फर्क है, जैसे पढ़ने और पढ़ने में। सुनते या पढ़ते तो हम सिर्फ शब्द हैं, पर फिर रक महत्वपूर्ण घटना घटती है, अपने अंदर। उस सुने या पढ़े शब्द या शब्दों का हममे से हरेक अर्थ निकालता है। यही बोलने और लिखने वाले के साथ प्रक्रिया होती है। शब्द एक ही होते हुए भी अलग अलग अर्थ हम निकालते हैं। कुछ तो संदर्भ की वजह से होता है। यहां तक कोई समस्या नही होती। पर जब हम अपने पूर्वग्रहों की वजह से दूसरे के अर्थ पर अपना अर्थ थोप देते हैं और इस गुमान में रहते हैं कि हम समझ गए तो गलाफ़हमी तो होती ही है, सम्प्रेषण होता ही नही और हम भुलावे में रहते हैं कि हमने समझ लिया।

आधुनिक शिक्षा ने अपने अंग्रेजीपरस्त और पश्चिम परस्त (पहले रूस और ब्रिटानिया और अब अमरीका) दिमाग को ध्रुवीकृत कर दिया है। दो परस्पर (मान लियेगये विपरीत ) ध्रुवों में चीज़ों को देखने के आदि हम अनजाने में ही आदि हो गए हैं। और सच या सही बहुदा विपरीत ध्रुवों में न हो कर कहीं और होता है।

पूर्वाग्रह हमें दूसरे को और सच्चाई को भी समझने में बाधा पहुंचाता है। यह मैंने कृष्णमूर्ती जी के अनुयायियों में, अनेक आध्यात्मिक  (धार्मिक से अलग) संगठनों में भी पाया। इनके अनुयायी आपसे मिलकर पहले इसे भांपने का प्रयास करते है कि आपके उनके खेमे  के प्रति कितनी श्रद्धा है। अगर आपको वे कमतर पाते हैं तो वे फिर आपकी अवहेलना करे लगते हैं, आपका विरोध सा भी होने लगता है। कम से कम आपको सुनना वे बन्द कर देते हैं या अपने ही अर्थो मी सुनते हैं, आपने जो कहा, आपका जो अर्थ था उसे नही सुनते। और अपने पर इतना गजब का विश्वास होता है कि अपने समझर पर शंका की कोई गुंजाइश भी नही रखते।

पवन कुमार गुप्त
जनवरी 13, 2020

Thursday, January 2, 2020

हम पढे लिखे निकम्मे हो जाते हैं। एक भी ऐसा काम ठीक से नहीं आता जो जीने के लिए आवश्यक हो। आधुनिक तकनीक विहीन दुनिया में हमारा जीना दूभर हो जाय फिर भी अहंकार आसमान छूता है। इनमे सभी विकार, झूठ, फरेब, ईर्षा, द्वेष, भय, असुरक्षा (इसे CAA से न जोड़े), क्रोध, अहंकार इत्यादि इत्यादि सभी भारत के बगैर पढे लीखों से कहीं ज़्यादा मात्रा (मात्रा कहना शायद उचित नहीं, फिर भी) में पाया जाता है, फिर भी ये अपने को उनसे ऊंचा मानते जिनमे इनसे ज्यादा सहज नैतिकता है, जो इनसे ज़्यादा अच्छे हैं, जिनकी फिक्र का ये पढे लिखे (झूठा) दावा करते रहते हैं। ये उन्हे मूर्ख मानते हैं। इनका ज्ञान बहुदा इनकी पढ़ी-लिखी या अक्सर सुनी-सुनाई, जानकारी होता है पर ये भ्रम में रहते है कि ये बड़े ज्ञानी हैं। जो पढे लिखे नहीं वे अपना ज्ञान रखते हैं जो उन्हे परंपरा से, विरासत से मिला है। वे उससे अपना काम सदियों से चलाते रहे हैं और कुल मिला कर एक स्वस्थ जीवन जी पाये हैं। हम पढे लिखे जिस तरह हम जी रहे हैं, वैसे ज़्यादा दिन 50-70 वर्ष से अधिक शायद न जी पाये। पर्यावरण, युद्ध और आतंकवाद और अंतर्राष्ट्रीय उन्माद (अलग अलग शक्लों में) मूंह बाये खड़ा खड़ा है। फिर भी हमारा अहंकार।
पढ़ा लिखा ऐसे बात करता है जैसे उससे ज़्यादा जानकार, समझदार और कोई हो ही नहीं - नामी गरामी "हस्तियों" को छोड़ कर।
इनमे कूवत नहीं रही कि सनातन सत्य, जानकारी और मान्यता में फर्क कर सकें। ये "मानते" हैं पर भ्रम में रहते हैं कि "जानते हैं"। बिना पढ़ा लिखा मानने को मानना ही मानता है
पढे-लिखों का अहंकार! तोबा! और बात, ये पढ़े-लिखे, साधारण की करते हैं। लोकतन्त्र है ना। ये साधारण मूर्ख हैं क्या? ये बस आपकी तरह बहस करना, दिखावा करना, छुपाना नहीं जानते। ये मूर्ख नहीं हैं। आप-हम  सार्वजनिक जीवन में राजनैतिक पैंतरा लेकर (झूठी) नैतिकता की बात करते हैं, और अंदर से खोखले होते हैं। ये नैतिकता का दावा किए बगैर हमसे-आपसे अपने निजी जीवन में ज़्यादा नैतिक होते हैं।

इन्होने अपने समाज में उसे एक सीमा के अंदर ठीक ठाक चलाने के लिए कुछ नियम बनाए जो हम पढे लिखों को समझ नहीं आते। (उदाहरण: खाप पंचायत के नियम - आसपास के गाँव के लड़के लड़कियों को लेकर नियम) और जो हमे समझ नहीं आए वह तो गलत होगा ही - यह हमारा अहंकार हमे बोलता है। हम पढे-लिखे जो हैं, अङ्ग्रेज़ी जो आती है, किताबे जो भर रखी हैं और थोड़ा बहुत पढ़ा भी होगा और उससे ज़्यादा ढोंग किया होगा। हमे "समाज" पसंद नहीं, हम तो व्यक्तिवाद के समर्थक हैं। नहीं तो हमारे संविधान का क्या होगा?  पर जब बजारवाद पर भाषण देना हो तो हम पढे लिखे व्यक्तिवाद की धज्जियां भी उड़ा देते हैं। हमारे वैचारिक दोगलेपन का क्या कहना?
यह हम पढे-लिखों की सच्चाई है। मेरे जैसे आलोचक की भी। यह कहाँ से आ गया हममें? अँग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी सोच से अभिभूत होने की वजह से? हम मुक्त नहीं हैं।

कोशिश करनी होगी। हमारे साधारण में जो कुछ अच्छा है, सुंदर है, सहज है - उसे पहले पहचानने की कूवत अपने में आए और फिर इस पर विचार हो कि वह आया कहाँ से होगा? इस पर शोध हो।

पवन कुमार गुप्त
जनवरी 2, 2020
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