राजनैतिक ढकोसले से लोग थक गए हैं
लिबरल पॉलिटिक्स वाले गांधी जी की दुहाई देते
नहीं थकते। गोडसे,
जो आरएसएस से संबंध रखते थे,
ने गांधी जी को मारा। वह भी धोखे से;
पहले पाँव छूने का नाटक किया फिर मारा। यह बात हमारे समाजवादी दोस्त और अन्य लिबरल
सेक्युलर राजनीति करने वाले मित्र हमेशा याद दिलाते रहते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं
कि लोहिया और जयप्रकाश जी को भी मारा गया था। उन्हे अच्छी तरह मालूम हैं, ये बातें। पर इनको
मारने वालों की जमात से आज ये हाथ मिलाने को तैयार हैं। लोहिया, जिनकी स्वतन्त्रता
के बाद,
ताउम्र खिलाफत करते रहे,
पंडित नेहरू,
उनके दल और उस दलदल से इन्हे कोई परहेज नहीं रह गया। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है?
वामपंथी प्रगतिशील बाना पहने, कइयों को मैं स्वयं
जानता हूँ जो इतनी क्रांतिकारी बात करेंगे कि आप उनके दिल के दर्द को (सर्वहारा के
प्रति ) और राजनीति में उनके मूल्यों में विश्वास को देख प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।
इन्हे कई तरह के देसी और अंतर-राष्ट्रीय सम्मान भी मिलते रहते हैं और ये ऊंची जगह भी
बैठे मिलते हैं। इनके सरोकार बड़े अफसरों,
नेताओं,
उद्योगपतियों,
diplomats,
फिल्म वालों,
मीडिया वालों - सभी से होते हैं। दरअसल यह छोटा सा club है। ये खूब ठाठ से रहते हैं। यह जीव हर जगह पाया
जाता है,
हर दल में भी। पर मेरा अनुमान है कि बड़े राजनैतिक दलों में, यह तबका, संख्या में सबसे
कम,
या तो बहुजन समाज पार्टी या बीजेपी में है और सबसे ज़्यादा कांग्रेस और उसके बाद कम्युनिस्ट
पार्टी एवं समाजवादी और जेडीयू जैसे दलों में। इसकी ताकत बड़ी है और बड़ी ही सूक्ष्म
है। यह सबको प्रभावित रखता है और डरा के भी रखता है और बिना हथियार के। हम मोदी के
अहंकार और आतंक की बाते करते हैं लेकिन मोदी का अहंकार और आतंक, इनके सामने भौंडा
है। इनका आतंक और अहंकार तो refined
है,
sophisticated है।
मैं एक दो बड़े वामपंथी नेता के बारे में बिना
संकोच यह कह सकता हूँ कि दिन में प्रगतिशील बाते और रात को कांग्रेस के एक अपने को
राजा कहने वाले बड़े नेता और बड़े उद्योगपति की वंशज और दिल्ली की बड़ी हस्ती के घर अच्छी
विलायती शराब इत्यादि। मैं यह साफ कर दूँ की बात शराब पीने की आलोचना नहीं है, बात इनकी ईमानदारी
की है,
इनके दुहरे या दोगले चरित्र की है।
इस चरित्र ने सारी राजनीति को निगल लिया है।
गांधी जी की दुहाई देने वाले लिबरलों को याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने parliament को
बांझ और वेश्या शब्द से संबोधित किया था। आगे उन्होने कहा था कि बिना धर्म की राजनीति
मृतक शरीर के समान है। ये दोनों ही बाते हमारे लिबरलों को पचेगी? गांधी का झूठा नाम
लेने से पहले उन्हे थोड़ा पढ़ लें और हो सके तो उनका नाम लेना छोड़ दे। गांधी उनमे अपच
पैदा कर देंगे ठीक उसी तरह जैसे आरएसएस वालों में करते हैं। भले ही दोनों की अ-पचगी
अलग अलग कारणों से हो।
लोग इसीलिए राजनीति से थक गए है, कोई विश्वास नहीं
रह गया। पर उन्हे और कोई विकल्प भी नहीं सूझता, यह सही है। वे अपने को एक चक्रव्यूह में फंसा
पाते हैं। भारत में तो ऐसा है ही दुनिया भर में कमोबेश यही हाल है। ब्रिटेन में कल
जो हुआ वह इसी कुंठा का प्रतिफलन है। वहाँ की जनता को दो बड़े राजनैतिक दलों में कोई
खास फर्क नहीं दिखता। दोनों ही बड़े पैसे और बड़े पैसे वालों, बैंकों के साथ मिले
लगते हैं। आम जन की किसी को परवाह नहीं है,
ऐसा एक ख्याल बनने लगा है,
सिर्फ वहाँ ही नहीं,
पूरी दुनिया में। अमरीका का भी यही हाल है। ब्रिटेन में लोगों ने अपना गुस्सा निकाला
है,
राजनैतिक दलों के खिलाफ। इसके परिणाम की उन्हे चिंता नहीं क्योंकि खोने को आखिर है
ही क्या?
खोने को तो उसके पास होता है जिसके पास पहले से कुछ हो।
यहाँ आम आदमी पार्टी की जीत भी उसी कुंठा का
इज़हार था। पर उनकी भी असलियत लोगों को मालूम चल रही है, भले ही धीरे धीरे।
अरविंद को मैं आज के दिन सबसे होशियार राजनीतिज्ञ मानता हूँ, अपने देश में। वह
अपनी अलग जगह बनाए रखने का प्रयास करते रहता है। कांग्रेस और लिबरलों के साथ भी और
उनसे दूरी भी। खेल यह है कि अगले 19 के चुनाव तक बाकी दल खुद ही उसे अगुवाई की गुहार
करे,
मोदी के खिलाफ। पर मेरा मुद्दा यह नहीं। मुद्दा यह है कि आज के दिन जो राजनैतिक दलों
का फरेब है वह कब तक चलते रहेगा?
क्या आम जनों के बीच इस फरेब पर चर्चा चलायी
जा सकती है,
जिससे जो बात मन में हैं पर व्यक्त नहीं होते, होने लगें? चीजें और मसले जुड़े होते हैं, अलग थलग नहीं, जैसे भगवान बुद्ध
ने कहा था। चीजों को जोड़ कर ही यह गुत्थी समझ आएगी और रास्ते खुलेंगे।
2 comments:
Good one Pawan bhaiya
Sankalp
बेबाक विश्लेषण।
सन्त समीर
Post a Comment