Sunday, August 7, 2016

काशी



काशी
हर बार की तरह इस बार भी बनारस आकर मन प्रफुल्लित हो गया। पता नहीं, अब तो मैंने विश्लेषण करना भी छोड़ दिया है, कि ऐसा क्या है यहाँ, यहाँ के लोगों में, हवा में, बोली में, यहाँ की बेपरवाही में, बेतरतीबी में, यहाँ की गंगा में, यों कहें यहाँ के वातावरण में, कि सहज ही मन प्रसन्न हो उठता है।
न्यौता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित आई आई टी से आया था। आई आई टी में नए छात्र आए हैं। बेचारे कई साल कोचिंग करके, अपने बचपने और तरुणाई को दबा कर, भुला कर, कड़ी - एक तरफा और एक तरह की संकुचित मेहनत करके - अपने माँ-बाप के सपनों को पूरा करने के लिए सिर्फ एक लक्ष्य (यहाँ प्रवेश पा सकें) लेकर चले और कई प्रकार के घावों को लेकर यहाँ पहुंचे हैं। हर साल आते ही उन्हे, एकबारगी फिर से पढ़ाई में झोंक दिया जाता था। पर इस साल एक नया प्रयोग हो रहा है। 21 दिनों तक कोई औपचारिक पढ़ाई/ कक्षाएं नहीं होंगी। उन्हे इस परिसर से, यहाँ के शिक्षकों से, वातावरण से उनकी मैत्री कराई जाएगी, संबंध बैठाया जाएगा। उन्हे सहज बनाने का यह एक अच्छा प्रयास मुझे लगा। मैं भी इस प्रक्रिया और प्रयोग का एक हिस्सा बना। प्रोफेसर राजीव संगल जो यहाँ के निदेशक हैं सहजता और विद्वता का अनूठा मिश्रण – पुराने मित्र भी हैं – उन्ही के निमंत्रण पर यहाँ आना हुआ। वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हे देख कर इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत का विद्वान कैसा होता होगा – बाहर से अति साधारण और अंदर से गहरी विद्वता – उसका दिखावा नहीं।
अन्य आई आई टी (कानपुर, दिल्ली इत्यादि) और यहाँ काशी के इस परिसर में ज़मीन आसमान का फर्क है। इतना हरा भरा, पुराने पीपल, बरगद, नीम, जामुन, आम और पता नहीं कितने प्रजाति के 100 वर्ष पुराने आलीशान पेड़ों से भरा हुआ। इस परिसर की हर सड़क की अलग ही छटा है – कहीं आम के वृक्षों से लदा हुआ तो कहीं पीपल, कहीं जामुन, कहीं नीम और सड़कें बीस फुट से कम ही क्यों न हों उनके दोनों ओर दुगनी- तिगनी जगह छोड़ी हुई जहां घास लगा है (शायद लगाया नहीं गया है और यह उसकी खूबसूरती को बढ़ाता है। मुझे तो लगता है यहाँ के botany विभाग या कृषि विभाग को इतने सारे पेड़ों और वनस्पतियों की एक inventory और एक कोश बनाना चाहिए। शायद बना भी हो। मुझे पता नहीं। पर इस पर हर वर्ष एक प्रोजेक्ट विद्यार्थियों को दिया जा सकता है। किस प्रजाति पर कब पत्ते आते हैं, फल आते हैं, फूल आते हैं, कब वे झड़ने लगते हैं। अलग अलग मौसम में वे कैसे दिखते हैं, कैसे वो मौसमानुसार अपना क्षृंगार बदलते हैं, तरह तरह के गहने और परिधानों से सजे ये पेड़ – उनकी तस्वीर हम ले कर एक प्रोजेक्ट का हिस्सा बना सकते हैं। कब किस मौसम में किस प्रजाति के पेड़ पर कौन सी चिड़िया अपना घौंसला बनाती है, उस घौंसले की खूबसूरती हमारे विद्यार्थी कैमरे में पकड़ सकते हैं – थोड़ी बहुत ही सही। अलग अलग पेड़ से मनुष्य का रिश्ता, पशु-पक्षी का रिश्ता समझा जा सकता है इस प्रोजेक्ट के जरिये। स्थानीय (अनपढ़ या ज़्यादा पढे लिखे नहीं) लोग इन प्रजातियों के बारे में क्या समझ रखते हैं, उनसे समझा जा सकता है, जिसे लोक ज्ञान या लोक विद्या भी कह सकते हैं। पर हमने तो किताबों और टीवी के अलावा देखना ही छोड़ दिया है। इसलिए हम मे से कुछ लोगों को हमारे विद्यार्थियों को दिखाना पड़ेगा।
काशी हिन्दू विषयाविदयालय में एक गज़ब की बात है। यहाँ प्रकृति और उसके पेड़, मानव द्वारा निर्मित भवनों से बड़े हैं। एक नए गेस्ट हाउस को छोड़ मुझे एक भी मकान नहीं मिला जो दो मंज़िल से ज़्यादा ऊंचा हो। सामान्य पेड़ की ऊंचाई कम से कम 35-45 फुट तो होती ही है। दो मंज़िला मकान अधिक से अधिक तीस फुट। यानि पेड़ बड़े और भवन छोटे। ऐसा नज़ारा अब कहाँ देखने को मिलता है। यहाँ है। अन्य आई आई टी में भवन बड़े, प्रकृति और पेड़ छोटे और आदमी और भी छोटा हो जाता है। यही आधुनिक शासन की बनावट है – आदमी छोटा रहे, तंत्र बड़ा। यहाँ शायद महामना मालवीय जी एवं अन्य बड़े लोगों की वजह से जिन लोगों ने इसकी कल्पना की, आदमी और प्रकृति का रुतबा बड़ा है। कोई भी भवन विशालकाय नहीं है। वैसे भी आदमी और प्रकृति का सहज रिश्ता है जो सीमेंट से बने मकान और आदमी के बीच नहीं हो सकता इसलिए प्रकृति का रुतबा बड़ा ही रखना चाहिए उसके बाद मनुष्य और फिर मकान। इसका ध्यान अपने वास्तु शास्त्रियों को अब नहीं रह गया जब से वास्तु कला architecture में बदली।
वैसे भी यह 2016 काशी हिन्दी विश्वविद्याला का शताब्दी वर्ष है। मेरा सौभाग्य की इस वर्ष यहाँ जाने का मौका मिला। मुझे इस पर शंका है कि यहाँ के विद्यार्थियों और शिक्षक गणों मे से भी अधिकांश को अपनी धरोहर का ज्ञान है या नहीं? इसकी कल्पना क्या थी, कैसे इसकी ज़मीन काशी राजा से महामना ने ली, उसके पीछे की कहानी, यहाँ के ग्राम वासियों को अलग से ज़मीन दे कर उस पर बसाना, ग्राम देवताओं के स्थानों को ज्यों का त्यों रहने देना, जहां आज भी गाँव के लोग समय समय पर आके गाते- बजाते हैं, उत्सव मनाते हैं, यहाँ का सुंदर मंदिर जहां बच्चे पढ़ने से लेकर जब मन खराब होता है जाते हैं।
सबसे बढ़ कर 1916 फरवरी में महात्मा गांधी का भाषण जो इस विश्वविद्यालय के उदघाटन समारोह के उपलक्ष में उन्होने भारत के उस समय के सबसे बड़े अफसर, वाइसराय लॉर्ड हार्डिंज की उपस्थिती में दिया था। भाषण हिन्दी में दिया और हार्डिंज को बड़े प्यार से पर ताल ठोक कर चुनौती दी थी। उससे एक संदेश पूरे देश में गया कि एक हमारे जैसा ही साधारण काला इंसान है हमारे बीच, जो अंग्रेजों के सबसे बड़े अफसर को इस तरह की बात बोल सकता है। उसी समय उनके इस साहस का डंका देश भर में बज गया होगा कि यह काम तो कोई योगी या महात्मा ही कर सकता है। यह बड़ा काम इस परिसर में हुआ, यहाँ के पेड़ और पूरानी इमारतें इसकी साक्षी रही हैं। सिर्फ इतना ही काफी है, यह परिसर हमारे लिए पूजनीय होने के लिए। मेरी छाती भी चौड़ी हुई और आंखे नम भी हुईं और गला रुँध भी गया – सब साथ साथ। मैंने शुरू के दिनों की यहाँ के senate की कुछ बहसें देखी हैं – मालवीय जी, भगवान दास जी के बीच की बहसें। किस उच्च कोटि की, विद्या और ज्ञान को लेकर, बहसे, विद्यार्थियों की मानसिकता कैसे प्रभावित होती हैं उन्हे लेकर सूक्ष्म गहरी बातें। इन्हे हर शिक्षक को पढ़ना चाहिए और विद्यार्थियों को भी। इसकी व्यवस्था यहाँ के administration और academicians को करनी चाहिए। यहाँ के लोगों को अपनी धरोहर का पता लगेगा, पता लगेगा कि आज की दोनों संसद में और यहाँ की सीनेट में बहस के स्तर पर किस ज़मीन आसमान का फर्क है। रोना भी आयेगा (अच्छा है, अंदर कुछ आग लगेगी) और गर्व से छाती भी फूलेगी। मुझमे यह दोनों हुआ, इसलिए कह रहा हूँ। अनुभव से। यह भी याद आया कि यह वह विद्या का स्थान रहा है जहां के उपकुलपति, आचार्य नरेंद्र देव ने दीक्षांत समारोह के वक्त भारत के प्रधानमंत्री को हिन्दी में बोलने का अनुरोध किया पर जब वे अँग्रेजी में बोले तो उन्हे बीच बीच में रोक कर उसका सीधा अनुवाद आचार्य जी ने किया। हम इसपर सीना फुला सकते हैं, इस तरह की शकसियत के कुलपति पर, जिसे प्रधानमंत्री को बीच में रोकने का साहस था। और रो सकते हैं अब क्या हो गया, इस पर? लोग कहते हैं जो बीत गया सो बीत गया पर मेरे जैसे यह मानने वाले हैं कि जो सच्च है, शुभ है, साहस देने वाला है, ज्ञान है वह लुप्त हो सकता है पर मरता नहीं। उनके बीज रहते हैं – परम्पराओं में लुके-छिपे रहे, हमारे dna में रहें, हमारी खोई स्मृति में रहें, रहते ज़रूर हैं। समय आयेगा, सच्चा  प्रयास होगा तो उभर आएंगे, नए पल्लव लेकर। स्मृति जागरण एक तरीका है।   
वहाँ तीन दिन रहना हुआ और तीन दिनों में तीन संवाद हुए। एक आई आई टी के नए लगभग 800 छात्रों के बीच( https://www.youtube.com/watch?v=oW5PQw9ge5s&feature=youtu.be), दूसरा बीएचयू के अँग्रेजी विभाग और संस्कृति विभाग के लगभग 125 शोध कर रहे और phd कर रहे छात्रों एवं शिक्षक गणों के बीच, जहां बहुत सी बाते हुई और हिन्दी में हुईं, और आखरी chemical engineering विभाग के सभागार में लगभग 125-150 शोध छात्रों एवं शिक्षक गणों के बीच (https://youtu.be/vHo6qbU-lvc)। अच्छी बातें हुई। प्रश्न भी अच्छे हुए। मुझे लगा कि संप्रेषणा हुई, कहीं मैं लोगों के हृदय को छू पाया। मन किया कि कभी 10-15 दिन यहाँ आ कर रुकूँ और सहज गति से यहाँ की दुनिया के लोगों के साथ संवाद कर सकूँ। देखें।   
बीएचयू तो काशी का एक हिस्सा है पर एक अद्भुत इंसान की वजह से थोड़ा बहुत वाराणसी भी घूमना हुआ और कुछ गुणी सज्जनों से मिलना भी। इसकी वजह बने डाक्टर कृष्ण कान्त शुक्ल – अमरीका में कई वर्ष physics और खगोल शास्त्र पढ़ाने के बाद संगीत को अपना बना लिया, physics छूट गई या छोड़ दी और वापस अपने घर काशी आ कर रहने लगे। संगीत से प्यार और अपने गांवों, उसके लोगों में बसा सहज ज्ञान और अपनी संस्कृति को समझने की उत्कंठा। माँ-बाप यहीं के, यहाँ की संस्कृति में रचे-बसे। माँ इसी विश्वविद्यालय की महिला कालेज की पहली प्राध्यापिका रही हैं। मालवीय जी की स्मृतियाँ ज़िंदा हैं। पिता। गोरखपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति रहे हैं। बड़ी विरासत के धनी हैं, हमारे शुक्ल जी। उन्ही के माध्यम से मूलतः केरल के, पर वाराणसी में जन्म और यहीं रचे-बसे जगदीश पिल्लई से मुलाक़ात हुई। मेरा सौभाग्य। ये वाराणसी के चप्पे चप्पे से वाकिफ ही नहीं उससे प्रेम करते हैं। इनकी मार्फत ध्रुपद (गायन) शैली के, आज के दिन जो जीवित हैं, उनमे सबसे अग्रणी पुरोधा, प्रोफेसर ऋतिक सान्याल से भेट हुई। उन्हे सुन तो नहीं पाया पर बाते हो पायी। अत्यंत सहज व्यक्ति पर अपने हुनर में माहिर। उसी विद्यालय के एक और पुरोधा प्रोफेसर बालाजी जो वाइलन बजाते हैं से भी मुलाक़ात हुई। उन्होने तो रात को अपने घर ही बुला लिया। संगीत उनमे पाँच पुश्तों से है। तमिलनाड के मूलतः पर पिता के जमाने से काशी में बसे हैं। अभी भी पूरा रहन सहन और ठाठ तमिलनाड से जुड़ा हुआ जिसमे वाराणसी की मस्ती और अभिमान का पुट भी जुड़ गया है। सुंदर, सहज मिश्रण। उन्होने पारंपरिक ढंग से बना बढ़िया दोसा, चटनी और सांभर के साथ, और कॉफी तो पिलाई ही साथ साथ तीन राग (जयजयवन्ती, केदार और भैरवी) सुना कर एक छोटी सी महफिल का रंग भी भर दिया। दो चेले भी थे जिसमे एक श्रीलंका से आया था जहां एक दो वर्ष पहले इन्हे उच्च समान दिया गया था और वहाँ के राष्ट्रपति ने ज़मीन पर इनके साथ बैठ कर इनका वाइलीन सुना था। जाते जाते इन्होने बनारसी पान भी खिलाया। अपनी तो शाम बन गई।
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही क्री कुंड में बाबा कीनाराम अघोर संस्थान पर जाना। वहाँ एक ऐसी पुस्तक हाथ लग गई जिसे मैं चुस्की ले कर पढ़ रहा हूँ – “औघड़ की गठरी”। मन में, बिना मिले ही अवधूत भगवान राम के लिए अपार सम्मान रहा है। उनके बारे में अपने हाईजैकर नेपाली मित्र दुर्गा सूबेदी से सुना था। emergency के जमाने मे स्वर्गीय श्री बी पी कोइराला (राजा के खिलाफ क्रान्ति के नेता और नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री) ने दुर्गा को औघड़ भगवान राम के यहाँ रुकवा दिया था – पुलिस से बचाने के लिए। दुर्गा उनके कुछ किस्से सुनाता था जब हमारी दोस्ती हुई – emergency के बाद। उनके पास इन्दिरा गांधी, चन्द्रशेखर जी से लेकर नामी-गरामी कितने ही लोग आते थे। और साधारण जनों की तो बात ही क्या? औघड़ बाबा के सामने तो सब एक जैसे ही थे। वे कुष्ठाश्रम चलाते थे, रोगियों की सेवा खुद भी करते थे। पर पूरी तरह से निर्लिप्त, अपनी मौज के। वे बिना मिले, हमेशा ही  मुझे आकर्षित करते रहे। अनायास यह किताब उठा लाया और फिर पता चला, किसी (केदार सिंह जी से) से सुनकर किसी (श्री दयानंद पांडे जी) ने उनपर लिखी है। “औघड़ की गठरी”। लगा आखिर मुलाक़ात हो ही गई। साधारण पर कितनी सुंदर किताब। हिन्दी, बीच बीच में मीठी भोजपुरी। क्यों नहीं लिख पाते हम लोग अब उस तरह? सहज, मिठास भरे हुए।
कहाँ और कब यह देश, झूठी विद्वता, झूठे दिखावे में पड़ गया। अङ्ग्रेज़ी के चक्कर में अपनी बोलियाँ ही हम जैसे भूल गए हों। वे बोलियाँ, जहां न सिर्फ मिठास, सहजता, ईमानदारी, पर, लोक ज्ञान, हमारे साधारण समाज में बसा हुआ सहज ज्ञान बसता है। औघड़ भगवान राम को मानने वाले साधारण लोग ही ज़्यादा थे, हमारे गाँव के लोग, आज के गुरुओं और भगवानों की तरह सिर्फ पैसे वाले अङ्ग्रेज़ी बोलने वाले नहीं। बनारस में जा कर तुलसी, कबीर, रामानन्द, रविदास, किनाराम, तैलंग स्वामी, लहिरी मोशाय, भगवान राम और न जाने कितने ही जिनका नाम जानते हो न जानते हों याद आ ही जाते हैं। श्रद्धा और रोमांच साथ साथ। ऐसा लगता है अवश्य ही आज भी ऐसी महान आत्माएं यहाँ दृश्य और अदृश्य रूप में विचरण कर रही होंगी, भले ही हमे उनके दर्शन हों या न हों। हम भी तो संदेह से भरे हुए हो गये हैं, अपनी होशियारी में। इस अँग्रेजी पढ़ाई ने और कुछ दिया या न दिया शंका और अहंकार ज़रूर दे दिया, अपनों और अपने के प्रति। इन दो के साथ कैसे कोई महान आत्मा दर्शन दे?
और यहाँ के मंदिर और कुंड जिनका अब तो यहाँ के रहने वालों को भी ज़्यादा पता नहीं है। विदेशियों को, उन विदेशियों को जिनके बारे में हमारे लोगों को ज़्यादा पता नहीं है, ज़्यादा पता है। माइकेल दैनिनो जो अब कोइम्बटूर में रहते हैं ने एक बार काशी के नक्शे पर बारह सूरी मंदिर दिखाये थे जो एक elliptical परिधि में हैं जहां हर संक्रांत (जब सौर्य सिद्धान्त वाले भारतीय गणना से नया महिना शुरू होता है) को सूर्य की प्रथम किरण बारी बारी से इन मंदिरों में बनी सूर्य देव की मूर्ति पर पड़ती है। अद्भुत गणित, खगोल और वास्तु कला का ज्ञान! अब किसी को इनकी जानकारी भी ठीक से नहीं है। यह सिर्फ एक उदाहरण, ऐसे अनेक चमत्कार यहाँ भरे पड़े हैं। मन करता है बस काशी में डूब जाय – कुछ दिनों के लिए ही सही – यहाँ की अद्भुत विरासत में।
अगस्त 6, 2016

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