ध्रुवीकरण की राजनीति
हमे ध्रुवीकरण (polarization)
की राजनीति समझनी होगी,
नहीं तो हम,
आम लोग,
इसमे फँसते रहेंगे और बेवकूफ बनते रहेंगे। इस खेल में दो ही रंगों की जगह होती है –
काला या सफ़ेद,
बाकी रंगों की जगह हटा दी जाती है। जबकी वास्तविकता
यह है कि संसार में अनगिनत रंग हैं। लाल,
गुलाबी,
हरे,
पीले,
वैगरा की बात छोड़े,
काला भी और सफ़ेद भी अनेक प्रकार के होते हैं। राजस्थानी में सफ़ेद रंग के दसियों विभाजन
हैं – दूधिया (दूध जैसा सफ़ेद),
मोतिया (मोती जैसा सफ़ेद),
इत्यादि,
इत्यादि। और इसी प्रकार काले के भी अनेक प्रकार हैं। और इस सफ़ेद और काले के बीच अनगिनत
‘शेड्स’ हैं। दुनिया ऐसी
ही है,
कोई भी देख सकता है पर हमारी (आधुनिक) शिक्षा ने सभी चीजों का ध्रुवीकरण कर दिया है।
देखिये हम बच्चों को कैसे पढ़ाते हैं। फर्क या
भेद या अलग-अलग बताने के बजाय हम उन्हे ‘विपरीत’ पढ़ाते हैं। काला-गोरा, सुबह-शाम, दिन-रात, अच्छा-बुरा, राक्षस-देवता, हीरो-विलन। बात यहीं
तक नहीं रहती,
आगे और मजा देखिये। महिला- पुरुष,
बाप-बेटा,
माँ –बेटी,
लड़का- लड़की। अब सोचिए क्या ये विपरीत हैं?
या अलग- अलग?
इन सब में कुछ तत्व अलग अलग हैं और कुछ एक समान, पर हम इन्हे विपरीत के रूप में पढ़ाते हैं। इससे
दिमाग के सोचने का तरीका प्रभावित होता है। आधुनिक दिमाग को ऐसा ही बनाया जा रहा है
जिससे उसके सोचने की चाबी उसके पास न रहे। इसमें एक राक्षस को खड़ा करने की ज़रूरत होती
है तो उसके विपक्ष में जो होता है उसके सारे पाप धुल जाते हैं। जॉर्ज बुश, डोनाल्ड ट्रम्प राक्षस, तो ओबामा, हिलरी क्लिंटन के
सारे पाप साफ। ओसामा बिन लादेन और आई एस - राक्षस तो पश्चिमी दुनिया और अमरीका के सारे
पाप साफ।
अभी हाल तक भारत में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा
था। पर अब जब चुनाव हो गए तो मीडिया के लिए वह कोई बड़ी बात नहीं रह गई। अब आरएसएस एवं
उसकी बेवकूफ़ियों को राक्षस बनाया जा रहा है जिसमें, जो भ्रष्टाचार में ऊपर से नीचे तक लिप्त हैं, वे बच जायेँ, मुद्दा कुछ और बन
जाय,
ध्यान उन पर से हट जाय। आशय आरएसएस को ‘क्लीन
चिट’
देने का नहीं,
बात कैसे ध्रुविकरण की हो रही,
ध्यान में रहे। ध्रुवीकरण,
सच्चाई की जगह निगल लेता है।
जिस प्रकार बाज़ार ने आदमी के अंदर जो कमियाँ, कमज़ोरियाँ हैं (लालच, प्रतिस्पर्धा करने
की प्रवृति इत्यादि),
उनका सहारा ले कर,
उनका शोषण करके,
स्वयं मानव का ही अंततः शोषण किया है ठीक उसी प्रकार हमारे दिमाग की भी कुछ प्रवृतियाँ
हैं जिनका सहारा,
आज के जमाने में,
लेकर जो विचार का निर्माण कर रहे हैं - शिक्षा व्यवस्था, बाज़ार व्यवस्था, मीडिया इत्यादि (इन्हे
अलग करके देखना गलत होगा। ये सब एक ही व्यवस्था के हिस्से है और एक दूसरे को पोषित
करते हैं) वे हमारे सोचने के ढंग को प्रभावित ही नहीं, बहुत हद तक संचालित
करते हैं। (इसका एक बड़ा उदाहरण: फटे कपड़े को high fashion बना पाना)।
हमारे दिमाग को complexity पसंद
नहीं;
उसे सीधा सीधा तर्क पसंद आता है;
इसमे ध्रुविकृत सोच से आसानी होती है,
क्योंकि एक तरफ सही,
दूसरी तरफ गलत,
हाँ या ना,
'विपरीत' आधुनिक दिमाग में
बैठता है। विविधता इस दिमाग में मुश्किल पैदा करती है। और आज की व्यवस्था को विपरीत
भाता है। इस व्यवस्था को बर्नी सैंडर्स नहीं चाहिए। इसे हिलरी क्लिंटन ही चाहिए और
इसलिए एक डोनाल्ड ट्रम्प भी चाहिए। जो झगड़ा दिखाया जाता है वह एक छलावा है आम आदमी
को भ्रमित रखने के लिए।
दूसरी तरह से भी देखते हैं। आज के युग में जब
किसी बात के 'क्यों' का उत्तर मिल जाता
तो आदमी यह मान लेता है कि उसने समझ लिया पर यह कितना खोखला है इसकी जांच की जा सकती
है। आप कोई भी काम क्यों करते हैं,
इसका भले ही किसी के पूछने पर आप एक उत्तर दे दें पर वह सम्पूर्ण सत्य हो ज़रूरी नहीं।
इसके कई उत्तर हो सकते हैं और कोई भी झूठ हो,
ऐसा भी नहीं। और यह तो सिर्फ चेतन स्तर पर
जो हो रहा है वहाँ की बात हुई। किसी भी काम के अवचेतन कारण भी बहुत से हो सकते हैं।
यानि एक ही कार्य या घटना के एक से अधिक कारण होते हैं। पर हमारी training नहीं
होती की इस तरह सोचे तो अक्सर जो चलन में होता है या जिसे हमे बताया जाता है, जिसे हम मान लेते
वही रहता है। वैसे हमारे यहाँ कारणों में दो मोटे विभाजन किए गए हैं - उपादान कारण
और निमित्त कारण (उदाहरण: कुम्हार और उसका चाक ये घड़े के निमित्त कारण और मिट्टी उपादान
कारण)। बहुत महत्वपूर्ण विभाजन है ये। आधुनिक दुनिया में इनकी बहुत चर्चा नहीं होती।
आज यह भी चल रहा कुछ भी अधूरा से सच को (सम्पूर्ण) सच मान लिया जाता है। और आधुनिक
आदमी के अहंकार की तो कोई सीमा है ही नहीं इसलिए वह यह कैसे मान ले कि उसे सोचना नहीं
आता या जो वह सोच रहा,
वह सोचना नहीं,
उसे सुचवाया (मनवाया) जा रहा है। कुछ तो छलावे
में ऐसा हो रहा है और कुछ डर के मारे कि कहीं कोई यह नहीं कह दे कि भाई तुम तो दक़ियानूसी
हो,
या regressive सोच
वाले हो,
या पिछड़े हो,
इत्यादि इत्यादि।
सारे के
सारे बुद्धिजीवी या तो विशेष हो गए हैं या उसकी फिराक में बैठे हैं। इसलिए हम, आम लोगों को अक्ल की बात
बिना झिझक अपने जैसे लोगों के बीच करनी पड़ेगी। उसके लिए समय और स्थान दोनों निकालने
पड़ेंगे।
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