Tuesday, June 21, 2016

खुल कर बात किए बगैर चारा नहीं




1992 में बाबरी मस्जिद वाली घटना के बाद चेन्नई में एक बैठक हुई थी। वहाँ के एक बड़े हकीम साहब जिनकी उम्र उस समय भी 80-85 के आस-पास रही होगी, भी उस बैठक में आए थे। बड़ी इज्ज़त थी उनकी और बहुत ही समझदार इंसान थे। चेहरे में भी ऐसा कुछ था कि आदमी सहज ही उनको सम्मान देने लगे। उन्होने एक बड़े पते की बात की थी। उन्होने कहा था कि पता नहीं क्या हो गया है कि अब हम लोग (हिन्दू, मुसलमान) आपस में बैठ कर मन की बात नहीं कराते, अपने गिले- शिकवे एक दूसरे से कहते नहीं (या तो झूठ बोलते हैं या गुस्से में गाली- गलौच)। यह बात कितनी सच है। सार्वजनिक गोष्ठियों में तो यह बात सत-प्रतिशत लागू होती है। औपचारिक भाई-चारे की बातें, गंगा-जमुनी तहज़ीब की बातें, चिकनी-चुपड़ी नकली, खोखली बातों से कभी कभी तो उबकाई होने लगती है। clichés लगते हैं सब। दर्द का रिश्ता अक्सर इतिहास में छुपा होता है, सो उसे भी देखना ही होगा। अकबर कितने उदार थे या नहीं यह मुद्दा उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि एक लंबे मुस्लिम शासन के दौर में हिन्दू के मन पर क्या गुजरी। वह भय से ग्रसित था या नहीं, वह असुरक्षित महसूस करता था या नहीं, इत्यादि मुद्दों पर खुले रूप से चर्चा हुए बिना समाधान मिलना मुश्किल है। किसी बच्चे पर बचपन में हुई हिंसा का असर सारी उम्र रहता है। तब तक रहता है जब तक वह उसे खुले मन से उस वाक्ये को, देख कर (दबा कर नहीं) उसे बिना पछतावे और बिना दोषारोपण किए एक घटना के रूप में स्वीकार न कर ले, जिसने हिंसा की या जिससे हिंसा हुई, उसे मन से माफ न कर दे। यह मौका हिंदुओं को मिला ही नहीं है अब तक। इसे हमे समझना होगा। और कमोबेश यह बात पसमंदा मुसलमानों और दलितों पर भी लागू होती है। पीड़ा है तो देखनी होगी। फटकार से,  भाषण या उपदेश से बात नहीं बनेगी। दोनों तरफ की शिकायते, उनके पीछे छुपे दर्द, को न कोई सुनता है, न उस पर कोई बाते होती हैं। न हिंदुओं की कोई समझ, इन गोष्ठियों में आने वाले मुसलमानों को है, न ही मुसलमानों की कोई समझ हिंदुओं में दिखाई देती है। और इसका दोष एक तरफ इन सेक्युलर लिबरल पॉलिटिक्स के सरमायेदारों का है तो दूसरी तरफ कट्टर हिन्दू- मुस्लिम राजनीति करने वालों को। इन दोनों ने ही ठेका ले लिया है कि देश में कोई ढंग की बात हे न होने पाये। यह कोका-कोला और पेपसी कोला जैसा मामला है (या ये, या वो), झूठी लड़ाई, जिसमे देसी, तरह तरह के शरबत गायब हो गए हैं।         
 
जर्मनी में नाज़ी दौर को लेकर बहुत आत्म-ग्लानि रही है। पर पिछले कुछ वर्षों में सरकार की अगुवाई में उन्होने इसका सामना किया। इस दर्द को, इस आत्म-ग्लानि पर सार्वजनिक तौर पर चर्चायेँ हुई, अन्य कार्यक्रम किए गए। दर्द को, उपदेश से, भाषण-बाजी से दबाया नहीं गया। बात-चीत के जरिये हल निकालने के प्रयास किए गए और उन्हे एक हद तक सफलता भी मिली है। हम भी ऐसा कर सकते हैं, पर इसके लिए छदमी लिबरल मुहावरे, नकली सेक्युलरिज़्म से बाहर आना होगा, आत्म-संकोच दूर करना होगा। मुक्त होना होगा। हमे अपने रास्ते स्वयं तय करने होंगे।

3 comments:

environment said...

बहुत ही सही विश्लेषण किया है पवन जी आपने !आपके पोस्ट को फेसबुक पर शेयर कर रहा हूँ !

Unknown said...

Hamare desh me shayad Germany jaisi baat hosake. sabhi power wale log hamare samaaj ki kamjori ka phayada lene keliye aur vote bank mazboot karne keliye hi kaam karte hai.

Logonka 'mai asurakshit hun' ye bhav hi unhe sadharan samaj (common sense) se pare rakhta hai. ek taraf politics se polarization aur dusri taraf objective/selfless drushtikon ka abhav hame samagrata se sochane nahi deta.

Bunch of Thought- book me Guruji ne bharatiya samaaj ke integration ka bahot sundar vishleshan diya hai... he compares it with Melting Pot culture of America and conservative culture of Europe and tell that we have unique situation... there is no one outsider in our country... so the solution can only be Integration!

Unknown said...

पवन जी,
नमस्कार,
खुलके बात करने में आने वाली कठिनाईयों को ही न सिर्फ आप स्पष्ट रुप में दिखातें है, बल्कि आप का ये छोटासा लेखं कृति के लिये मजबुर (आनंद से) करने की ताकद रखनेवाला ऊचीत मार्गदर्शन है !