पिछले वर्ष फारबिसगंज, बिहार के उत्तर में नेपाल सीमा से लगा हुआ एक कस्बा जो अब छोटे मोटे शहर का रूप ले रहा है और जहां मैंने अपने स्कूली जीवन की अधिकांश छुट्टियाँ बिताईं हैं, एक अरसे बाद जाना हुआ। फणीश्वर नाथ रेणु का गाँव यहाँ से पास ही है। एक तरफ बंगाल दूसरी तरफ नेपाल। कोसी का इलाका जो अपना रास्ता बदलने के लिए मशहूर रही है। बहुत ही उपजाऊ मिट्टी। बंगाल के इतने पास होने की वजह से फारबिसगंज में बंगालियों की अच्छी ख़ासी तादाद हुआ करती थी। बनफूल और सतिनाथ भादुरी यही आस पास पुर्णिया और कटिहार के रहने वाले थे। पर इस इलाके के बंगाली सहज सरल थे। कलकत्ता के बंगालियों की अंग्रेज़ियत और अकड़ से कोसो दूर।
बंगाली हों और फुटबाल का खेल न हो यह कैसे हो सकता है? और हमारे यहाँ का फुटबाल का स्तर काफी अच्छा माना जाता था। यहाँ के खिलाड़ी कलकत्ता की बड़ी टीमों जैसे मोहन बागान, मोहमेड्डन स्पोर्टिंग, ईस्ट बंगाल की टीमों में खेले हैं। पिछले साल जब वहाँ गया तो किसी से पूछा कि भई फुटबाल का क्या हाल है? तो पता चला अब कोई खेलता नहीं। न खेलने के मैदान बचे हैं और न ही किसी को कोई खास शौक रह गया है। यानि साधारण आदमी और साधारण चीजों के लिए जगह सिमटती जा रही है। खेलना है तो खेल की अकादमियों में खेलो। और वहाँ साधारण नहीं विशेष लोग ही जाएँगे। खास कपड़े, जूते और अन्य तामझाम के साथ। नंगे पाँव, चलते फिरते नहीं खेल सकते अब। यही बात हर क्षेत्र में है। साधारण की जगह गायब होती जा रही है।
मेरे दादा या शायद बाबूजी को भी कोई उनका परिचय पूछता तो वो शायद कहते कि मैं फलां परिवार से हूँ, फलां का बेटा या पोता हूँ, हम फलां धंधा करते हैं, फलां गाँव या मोहल्ले में रहते हैं। बोलने वाला और सुनने वाला, दोनों संतुष्ट हो जाते इस तरह के कुछ जवाब से। अब ज़रा सोचिए कि आज के समय कोई ऐसा जवाब दे तो क्या होगा? अब जवाब में परिवार, कुटुंब, गाँव या मोहल्ले की बाते नहीं हो सकती। अब परिचय व्यक्तिगत तौर पर ही देना होगा। अपने नाम के अलावा, पढ़ाई की डिग्री, किस जगह नौकरी और हो सके तो उससे तनख्वा का अनुमान - ऐसा कुछ परिचय देना ज़रूरी हो गया है। यानि हम से, मैं की तरफ, तरक्की की है, हमने। ठीक है, पर इसका असर देखिये कि सब को 'विशेष' बनना है। और विशेष की शर्त ही यह है, उसमे निहित ही है, कि हज़ार, दस हज़ार या लाख में एक। नहीं तो विशेष कैसा? तो यह लाज़मी है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग विशेष नहीं बन सकते। पर सपना सबको विशेष बनने का दिया जा रहा है। जो नहीं बन पाते उनपर क्या गुजरती होगी, कल्पना करना होगी ।
आई आई टी में हर साल 2-4-5 लोग तो आत्म-हत्या करते ही हैं। कोटा में और कोटा जैसी और कई जगहों पर जहां कोचिंग सेंटर चलते हैं, वहाँ, वे जो आई आई टी या ऐसी ही किसी जगह निकल नहीं पाते, यही हाल है। हर साल 100-200 की तो बलि चढ़ती ही होगी। पर उनका क्या जो आत्म-हत्या तो नहीं करते पर विशेष भी नहीं बन पाते? इनमे से अधिकतर उम्र भर के लिए एक घाव लेकर जीते हैं और इस घाव की बात भी, वे किसी से नहीं कर पाते। यह घाव उनमे हीनता का भाव भर देता है, उन्हे सहज नहीं होने देता। इस घाव को वे झूठे अहंकार से ढकने की कोशिश करते हैं। इस घाव का असर उनके निजी रिश्तों पर भी पड़ता होगा। कितनी बड़ी संख्या में यह हिंसा हमसे, अनजाने में ही सही, हो रही है। इसका कितना बड़ा मूल्य हम चुका रहे हैं, इसका हिसाब लगाना चाहिए। एक दिन कोई हड़ताल हो जाती है, जाम लग जाता है, बाढ़ आ जाती है, तो नुकसान का हिसाब लगाया जाता है। इस तरह विशेष बनने की बीमारी के चलते मनोवैज्ञानिक रूप से समाज का जो नुकसान लगातार होते जा उसका हिसाब लगाना ज़रूरी है। यह बात बिना हिसाब लगाए भी आसानी से समझी जा सकती है पर जिस प्रक्रिया के तहत यह हिंसा हो रही है, उस प्रक्रिया ने हमारा मानस ऐसा बना दिया है कि आंकड़ों के बिना सीधी सीधी बात भी समझ नहीं आती। हिसाब लगाना इसलिए भी ज़रूरी है। जिस प्रक्रिया ने मनुष्य को एक संसाधन बना के छोड़ दिया है उन्हे, उस नज़रिये से ही सही, इस नुकसान के बारे में सोचना चाहिए। एक कुंठाग्रस्त इंसान कितना 'प्रोडक्टिव' होगा?
हमारे यहाँ तो कम से कम साधारण के लिए अभी हाल तक करीब 40-50 वर्ष पहले तक काफी जगह हुआ करती थी। साधारण सिर्फ आदमी नहीं, साधारण क्रिया-कलाप भी। साधारण मानस में सहयोग की भावना होती थी, साधारण संवेदनशील भी था, संतोषी भी, थोड़ा बहुत झूठ, थोड़ा बहुत लालच, थोड़ा बहुत गड़बड़ होता रहता था पर कुल मिला कर काम चल जाता था। इस सहजता को हम खो रहे हैं।
विशेष और सहज में एक विरोध है, विशेष का मेल तीव्रता, गति की तीव्रता, अधैर्य, आक्रामकता, हिंसा इन सब का एक मेल है। इस जल्दबाजी का असर दिमाग पर भी पड़ा है। तुरंत समझना है, समय नहीं है। और जो जितना जल्दी समझे, वह उतना होशियार भी दिखाई देता है! जल्द समझने में कटघरे (categories) मदद करती हैं, कुछ कुछ वैसे ही जैसे गणित का सवाल सूत्रों को याद रखने से सरल हो जाता है। सूत्रों के मार्फत सवाल का (सही) जवाब तो मिल जाता है पर कोई ज़रूरी नहीं कि हल करने वाले को कुछ भी समझ आया। सूत्र तो मात्र एक तरीका देता है, बुनियादी समझ नहीं। आज की दुनिया में, हर क्षेत्र में कटघरे हावी हो गए है। काला या तो गोरा; सुबह या तो शाम, दिन या तो रात और धीरे धीरे बात आगे बढ़ती है पुरुष-महिला, हिन्दू-मुसलमान, सेक्युलर-कट्टरपंथी, पूरब-पश्चिम इत्यादि इत्यादि। ध्रुविकरण - या ये या वो - बीच में या अगल बगल कुछ नहीं। टी वी वालों के पास समय कहाँ। दो पाटों में सब कुछ बांटने से उनका और सबका, जो जल्दी में हैं, काम आसान हो जाता है। हमारा, विशेष बनने की चाहत में, ऐसा ही दिमाग बन गया है या बना दिया गया है।
कैरना में जो हो रहा है, असली वजहें कौन जानना चाहता है? कोई इस तरह देख रहा है या दिखा रहा है कोई उस तरह। जो पिस रहे हैं, उनकी परवाह किसे है?
3 comments:
lovely ... thanks
दिल की बातें !
पवन जी , इस सुन्दर लेख के लिए धन्यवाद, साधारण और विशेष का यह संवाद अति महत्वपूर्ण है , आज विशेष के प्रति हमारी अति रूचि और साधारण की अवहेलना - एक गहरे तल पर हमारी मानसिकता में हुए बदलाव की सूचक हैं | इस विषय को सिर्फ बाहर नहीँ बल्क़ि भीतर भी देखने की अवश्यकता होगी | हमारे व्यतिगत जीवन से भी साधारण कार्य जैसे सिर्फ भोजन करना, पकाना , सफाई करना, पुताई करना, कोई छोटा सा खिलौना बनाना , एक स्वेटर सिलना , एक सादी कविता लिखना, या बस खली बैठें रहना आदि का महत्व खत्म होता जा रहा हैं | हम लोग बाहर और भीतर दोनों विशेष से भरना चाहते है ...जिससे जीवन में सहजता कम हुई है और तनाव बढ़ा है |
Post a Comment