Friday, March 27, 2020

चैत्र शुक्ल 3, 2077
मार्च 27, 2020

श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी
प्रधानमंत्री
भारत 

सम्मानीय प्रधान मंत्री जी,
इस संकट की घड़ी में जिस तरह के साहसिक कदम आपने उठायें हैं, वे अत्यंत सराहनीय हैं। हम इस देश के लोग, पिछले 2 सदियों या उससे भी ज़्यादा की इस आधुनिकता की आँधी के बावजूद, अभी भी ईश्वर एवं प्रकृति की अपार शक्ति में विश्वास करने वाले लोग हैं और इसे मैं हमारी ताकत मानता हूँ। वर्तमान संकट संभवतः देश के लिए एक ज़बरदस्त मौका है – इस विकास की दौड़ के नियम बदलने का, देश को अपनी जड़ों से जोड़ने का और एक नए प्रकार के आत्म-विश्वास का संचार करने का।
इस प्रकार के मौके कभी कभी ईश्वर कृपा से प्रस्तुत होते हैं और आप जैसे, साहसी और देश की जड़ों से जुड़े नेतृत्व में ही ऐसी संभावना उपलब्ध होती है कि संकट को, अवसर में बदल दे। दुनिया के सभी देश उलझे हुए हैं – संभवतः किसी को कुछ नहीं पता है कि इसका सामना किस प्रकार किया जाय। यदि मेरे इस आंकलन से आप सहमत हैं तो यह परिस्थिति हमे एक अवसर देती है कि हम कुछ ऐसे प्रयोग करें जो अभी तक इस तेज बहाव से  बह रही दुनिया की मुख्य धारा में, बावजूद हमारी समझ और उस (देसज) रास्ते में एक उम्मीद के, संभव न था। आज जब दुनिया ठहर सी गई है शायद यह संभव हो। विशेषकर आपके लिए।
यह बीमारी भी आधुनिकता से जुड़ी बीमारी है, उसकी दें है। तरह तरह की अफवाहों में न जा कर भी यह तो स्वीकार्य योग्य है ही कि वर्तमान बीमारी कहीं न कहीं आधुनिक विज्ञान और आधुनिक विकास की दौड़ में अंध-विश्वास से जुड़ी है। यह एक मौका देता है कि हम हमारी परम्पराओं को नई नज़रों से देखें। चाहे वे परम्पराएँ स्वास्थ्य और भोजन (उदाहरण के लिए: immunity बढ़ाने के लिए हल्दी, सौंठ इत्यादि का प्रयोग) से जुड़ी हो, साफ सफाई और hygiene (शुचिता) से जुड़ी हों, कृषि से जुड़ी हों अथवा कारीगरी से जुड़ी हों। 
हमारा बहुजन समाज विशेषकर वह जो आज भी गांवों में बसता है या उससे सीधा सीधा संबंध रखता है – वह आधुनिकता में लिप्त हुए शहरी वर्ग से कहीं ज़्यादा स्वावलंबी है। वह कम (संख्या में कम) चीजों में अपना गुज़र बसर आसानी से कर लेता है और मात्रात्मक रूप से भी वह कम में गुज़र कर लेता है। यह हमारी शक्ति है और इसे हमे न सिर्फ पहचानना है बल्कि प्रोत्साहित करना है। उज्ज्वला योजना जैसी योजनाएँ इसे बल देती है। ऐसी दिशा में और अधिक सोचा जा सकता है जो हमारी ग्रामीण (non monetized economy) व्यवस्था को अधिक शक्तिशाली बनाने में सहयोग करे। जो देश अपने को “विकसित राष्ट्र” कहते हैं उनके यहाँ यह शक्ति लगभग नहीं के बराबर है। उन्होने इसे खो दिया है।
हमारा ग्रामीण समाज सदियों से किसानी के अलावा विभिन्न तरह के उत्पादन कार्य से भी जुड़ा हुआ है – सूत, कपड़ा, मिट्टी के बर्तन, तांबे का काम, मसाले, चमड़े का काम, लोहे के औज़ार इत्यादि इत्यादि। इन्हे इस समय एक बड़े रूप में प्रोत्साहन दिया जा सकता है। आपको तो पता ही होगा यह वही कारीगर समाज है जिसके बूते पश्चिमी आर्थिक इतिहासकर यह बताते हैं कि 1750 तक भारत दुनिया के कुल ‘गैर कृषि उत्पाद’ में ¼ से 1/3 हिस्सा का हिस्सा रखता था। पिछले 270 वर्षो की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद यह समाज आज भी ज़िंदा है। यह मौका है हम इस समाज में पुनः जान फूंके।
कृषि के क्षेत्र में यह संकट एक बड़ा मौका हमे देता है कि हम हमारी कृषि - जो पिछले कई दशकों से वैज्ञानिक खेती के नाम पर रसायनिक खाद पर निर्भर हो गई है – उसे नैसर्गिक (organic) और नैसर्गिक खाद की तरफ मोड़े। इससे गायों का भी भला होगा। manrega जैसी योजनाओं को बड़े रूप में पुनः तालाब निर्माण और गायों के लिए हर गाँव पंचायत में क्षेत्र में गोचर भूमि एवं चारगाहों की तरफ मोड़ा जा सकता है।
चीनी (जो बड़ी मिलों में तैयार होता है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है) की जगह गुड, शक्कर और खांड को बढ़ावा देना संभवतः इस समय उपयोगी होगा। खांड, शक्कर और गुड छोटे ग्रामीण उद्योगों में बनते हैं और ये चीज़ें स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक हैं।       
प्रधान मंत्री जी ऐसा लगता है कि भारत के आम आदमी की immunity पश्चिम के आम आदमी से अधिक है, भले हे वे हृष्ट-पुष्ट लगते हों। इसका प्रमाण उनके हमारे देश में आते ही पेट खराब होने से लेकर सर्दी जुकाम का तुरंत होना है। वे  हमारी तरह का विविधता भरा खा कर भी बीमार पड़ जाते हैं। हमारे मसाले, हमारी आबोहवा, हमारी विविधता शायद यह हमारी immunity को बढ़ा देती है। हम बहुत प्रतिकूल वातावरण को जितनी आसानी से सहन कर जाते हैं वे नहीं कर पाते। अगर कोई वैज्ञानिक आपके निर्देशन में इसकी जांच कर पाएँ तो यह जानकारी बल देने वाली होगी और इस समय तो बहुत अधिक संबल इससे मिलेगा। मैं बगैर किसी वैज्ञानिक आधार के, आशावान हूँ कि ऐसा है। पर कृपया कुछ योग्य वैज्ञानिकों को इस पर शोध करने के लिए प्रेरित करें।
आप अपने भाषणों में, हमारी रोज़मर्रा की, खानपान और स्वास्थ्य संबंधी परम्पराओं की ओर धायनकर्षण करेंगे तो लोगों ने जिन सुंदर आदतों को आधुनिकता के चक्कर में ‘पिछड़ा’ समझ कर बिना सोचे समझे छोड़ दिया है उन पर पुनः विचार करेंगे। उदाहरण: tooth paste से नीम या बबूल की दातून कहीं ज़्यादा लाभकारी है, पर पढ़ने लिखने के बाद लोगों ने इसे नासमझी और एकतरफा सोच की ‘हम पिछड़े हैं’ में छोड़ दिया। दतून न सिर्फ लाभकारी है, हमे स्वावलंबी भी बनाती है। इसी तरह अनेकों परंपराए रहीं हैं जो हर दृष्टि से बेहतर हैं और स्वावलंबन को पोषित करती हैं। आप इस ओर लोगों का ध्यानाकर्षण कर सकते हैं।
हज़ार वर्ष की गुलामी और 200 वर्षों के अंग्रेजों के युग ने हमारे लोगों में एक खौफ, डर, और हीनता की भावना को अंदर तक बैठा दिया है। यह कभी क्रूरता, कभी आक्रामकता, कभी छोटी मोटी बेईमानी और कभी दोगलेपन और कभी self consciousness (आत्म-संकोच) के रूप में हमारे लोगों में झलकता है। इस पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बड़े रूप में इलाज करने की ज़रूरत है और एक हद तक आपके प्रधानमंत्री बनाने के बाद यह शुरू भी हो गया है। पर इस विदेशी और आधुनिकता के आक्रमण के बावजूद यह देश और यहाँ की परंपराए अगर बची हैं तो वह बहुजन, साधारण लोगों में आस्था और विश्वास की वजह से। यह बड़ी चीज़ है। यह हमारी ताकत है जिसे आधुनिक लोग तिरस्कार और हेय दृष्टि से देखते आए हैं। प्रधान मंत्री जी आप इस बात को समझते हैं और साहस करके इस बात से पीछे नहीं हटते। यह आस्था हमे ज़िंदा रखेगी। आजकल तो बहुर सारी शोध mind-body relationship पर हो भी रही है और वैज्ञानिको का एक बड़ा तबका अब इसे स्वीकार भी करने लगा है। इसलिए अब अपने भाषणों इस बात को करें, प्रार्थना की शक्ति और उससे वातावरण में होने वाले सकारात्मक प्रभाव पर प्रकाश डालें और इस भारतीय आस्था को प्रोत्साहन दें। ऐसी प्रार्थना है।
मेरे कही बातों से आप पहले से अवगत हैं ऐसा मानता हूँ। नया कुछ भी नहीं है। नया होता भी नहीं हैं हम तो समय को linearity में नहीं चक्रीय रूप में देखते हैं। सतयुग से कलयुग और फिर सतयुग.....  मेरे ईश्वर से प्रार्थना है यह छोटा सा पत्र आप तक पहुंचे और आप इस दिशा में कुछ कर पाएँ।
सादर
विनीत
पवनकुमार गुप्त
हेजलवुड, लैंढौर कैन्तूंमेंट
मसूरी 248179

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