Saturday, June 25, 2016

राजनैतिक ढकोसले से लोग थक गए हैं



राजनैतिक ढकोसले से लोग थक गए हैं
लिबरल पॉलिटिक्स वाले गांधी जी की दुहाई देते नहीं थकते। गोडसे, जो आरएसएस से संबंध रखते थे, ने गांधी जी को मारा। वह भी धोखे से; पहले पाँव छूने का नाटक किया फिर मारा। यह बात हमारे समाजवादी दोस्त और अन्य लिबरल सेक्युलर राजनीति करने वाले मित्र हमेशा याद दिलाते रहते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि लोहिया और जयप्रकाश जी को भी मारा गया था। उन्हे अच्छी तरह मालूम हैं, ये बातें। पर इनको मारने वालों की जमात से आज ये हाथ मिलाने को तैयार हैं। लोहिया, जिनकी स्वतन्त्रता के बाद, ताउम्र खिलाफत करते रहे, पंडित नेहरू, उनके दल और उस दलदल से इन्हे कोई परहेज नहीं रह गया। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है?
वामपंथी प्रगतिशील बाना पहने, कइयों को मैं स्वयं जानता हूँ जो इतनी क्रांतिकारी बात करेंगे कि आप उनके दिल के दर्द को (सर्वहारा के प्रति ) और राजनीति में उनके मूल्यों में विश्वास को देख प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। इन्हे कई तरह के देसी और अंतर-राष्ट्रीय सम्मान भी मिलते रहते हैं और ये ऊंची जगह भी बैठे मिलते हैं। इनके सरोकार बड़े अफसरों, नेताओं, उद्योगपतियों, diplomats, फिल्म वालों, मीडिया वालों - सभी से होते हैं। दरअसल यह छोटा सा club है। ये खूब ठाठ से रहते हैं। यह जीव हर जगह पाया जाता है, हर दल में भी। पर मेरा अनुमान है कि बड़े राजनैतिक दलों में, यह तबका, संख्या में सबसे कम, या तो बहुजन समाज पार्टी या बीजेपी में है और सबसे ज़्यादा कांग्रेस और उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी एवं समाजवादी और जेडीयू जैसे दलों में। इसकी ताकत बड़ी है और बड़ी ही सूक्ष्म है। यह सबको प्रभावित रखता है और डरा के भी रखता है और बिना हथियार के। हम मोदी के अहंकार और आतंक की बाते करते हैं लेकिन मोदी का अहंकार और आतंक, इनके सामने भौंडा है। इनका आतंक और अहंकार तो refined है, sophisticated है।
मैं एक दो बड़े वामपंथी नेता के बारे में बिना संकोच यह कह सकता हूँ कि दिन में प्रगतिशील बाते और रात को कांग्रेस के एक अपने को राजा कहने वाले बड़े नेता और बड़े उद्योगपति की वंशज और दिल्ली की बड़ी हस्ती के घर अच्छी विलायती शराब इत्यादि। मैं यह साफ कर दूँ की बात शराब पीने की आलोचना नहीं है, बात इनकी ईमानदारी की है, इनके दुहरे या दोगले चरित्र की है।
इस चरित्र ने सारी राजनीति को निगल लिया है। गांधी जी की दुहाई देने वाले लिबरलों को याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने parliament को बांझ और वेश्या शब्द से संबोधित किया था। आगे उन्होने कहा था कि बिना धर्म की राजनीति मृतक शरीर के समान है। ये दोनों ही बाते हमारे लिबरलों को पचेगी? गांधी का झूठा नाम लेने से पहले उन्हे थोड़ा पढ़ लें और हो सके तो उनका नाम लेना छोड़ दे। गांधी उनमे अपच पैदा कर देंगे ठीक उसी तरह जैसे आरएसएस वालों में करते हैं। भले ही दोनों की अ-पचगी अलग अलग कारणों से हो।
लोग इसीलिए राजनीति से थक गए है, कोई विश्वास नहीं रह गया। पर उन्हे और कोई विकल्प भी नहीं सूझता, यह सही है। वे अपने को एक चक्रव्यूह में फंसा पाते हैं। भारत में तो ऐसा है ही दुनिया भर में कमोबेश यही हाल है। ब्रिटेन में कल जो हुआ वह इसी कुंठा का प्रतिफलन है। वहाँ की जनता को दो बड़े राजनैतिक दलों में कोई खास फर्क नहीं दिखता। दोनों ही बड़े पैसे और बड़े पैसे वालों, बैंकों के साथ मिले लगते हैं। आम जन की किसी को परवाह नहीं है, ऐसा एक ख्याल बनने लगा है, सिर्फ वहाँ ही नहीं, पूरी दुनिया में। अमरीका का भी यही हाल है। ब्रिटेन में लोगों ने अपना गुस्सा निकाला है, राजनैतिक दलों के खिलाफ। इसके परिणाम की उन्हे चिंता नहीं क्योंकि खोने को आखिर है ही क्या? खोने को तो उसके पास होता है जिसके पास पहले से कुछ हो।
यहाँ आम आदमी पार्टी की जीत भी उसी कुंठा का इज़हार था। पर उनकी भी असलियत लोगों को मालूम चल रही है, भले ही धीरे धीरे। अरविंद को मैं आज के दिन सबसे होशियार राजनीतिज्ञ मानता हूँ, अपने देश में। वह अपनी अलग जगह बनाए रखने का प्रयास करते रहता है। कांग्रेस और लिबरलों के साथ भी और उनसे दूरी भी। खेल यह है कि अगले 19 के चुनाव तक बाकी दल खुद ही उसे अगुवाई की गुहार करे, मोदी के खिलाफ। पर मेरा मुद्दा यह नहीं। मुद्दा यह है कि आज के दिन जो राजनैतिक दलों का फरेब है वह कब तक चलते रहेगा? क्या आम जनों के  बीच इस फरेब पर चर्चा चलायी जा सकती है, जिससे जो बात मन में हैं पर व्यक्त नहीं होते, होने लगें? चीजें और मसले जुड़े होते हैं, अलग थलग नहीं, जैसे भगवान बुद्ध ने कहा था। चीजों को जोड़ कर ही यह गुत्थी समझ आएगी और रास्ते खुलेंगे।    
 

Friday, June 24, 2016

ध्रुवीकरण की राजनीति



ध्रुवीकरण की राजनीति
हमे ध्रुवीकरण (polarization) की राजनीति समझनी होगी, नहीं तो हम, आम लोग, इसमे फँसते रहेंगे और बेवकूफ बनते रहेंगे। इस खेल में दो ही रंगों की जगह होती है – काला या सफ़ेद, बाकी रंगों की जगह हटा दी जाती है।  जबकी वास्तविकता यह है कि संसार में अनगिनत रंग हैं। लाल, गुलाबी, हरे, पीले, वैगरा की बात छोड़े, काला भी और सफ़ेद भी अनेक प्रकार के होते हैं। राजस्थानी में सफ़ेद रंग के दसियों विभाजन हैं – दूधिया (दूध जैसा सफ़ेद), मोतिया (मोती जैसा सफ़ेद), इत्यादि, इत्यादि। और इसी प्रकार काले के भी अनेक प्रकार हैं। और इस सफ़ेद और काले के बीच अनगिनत शेड्स हैं। दुनिया ऐसी ही है, कोई भी देख सकता है पर हमारी (आधुनिक) शिक्षा ने सभी चीजों का ध्रुवीकरण कर दिया है।
देखिये हम बच्चों को कैसे पढ़ाते हैं। फर्क या भेद या अलग-अलग बताने के बजाय हम उन्हे विपरीत पढ़ाते हैं। काला-गोरा, सुबह-शाम, दिन-रात, अच्छा-बुरा, राक्षस-देवता, हीरो-विलन। बात यहीं तक नहीं रहती, आगे और मजा देखिये। महिला- पुरुष, बाप-बेटा, माँ –बेटी, लड़का- लड़की। अब सोचिए क्या ये विपरीत हैं? या अलग- अलग? इन सब में कुछ तत्व अलग अलग हैं और कुछ एक समान, पर हम इन्हे विपरीत के रूप में पढ़ाते हैं। इससे दिमाग के सोचने का तरीका प्रभावित होता है। आधुनिक दिमाग को ऐसा ही बनाया जा रहा है जिससे उसके सोचने की चाबी उसके पास न रहे। इसमें एक राक्षस को खड़ा करने की ज़रूरत होती है तो उसके विपक्ष में जो होता है उसके सारे पाप धुल जाते हैं। जॉर्ज बुश, डोनाल्ड ट्रम्प राक्षस, तो ओबामा, हिलरी क्लिंटन के सारे पाप साफ। ओसामा बिन लादेन और आई एस - राक्षस तो पश्चिमी दुनिया और अमरीका के सारे पाप साफ।  
अभी हाल तक भारत में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था। पर अब जब चुनाव हो गए तो मीडिया के लिए वह कोई बड़ी बात नहीं रह गई। अब आरएसएस एवं उसकी बेवकूफ़ियों को राक्षस बनाया जा रहा है जिसमें, जो भ्रष्टाचार में ऊपर से नीचे तक लिप्त हैं, वे बच जायेँ, मुद्दा कुछ और बन जाय, ध्यान उन पर से हट जाय। आशय आरएसएस को क्लीन चिट देने का नहीं, बात कैसे ध्रुविकरण की हो रही, ध्यान में रहे। ध्रुवीकरण, सच्चाई की जगह निगल लेता है।
जिस प्रकार बाज़ार ने आदमी के अंदर जो कमियाँ, कमज़ोरियाँ हैं (लालच, प्रतिस्पर्धा करने की प्रवृति इत्यादि), उनका सहारा ले कर, उनका शोषण करके, स्वयं मानव का ही अंततः शोषण किया है ठीक उसी प्रकार हमारे दिमाग की भी कुछ प्रवृतियाँ हैं जिनका सहारा, आज के जमाने में, लेकर जो विचार का निर्माण कर रहे हैं - शिक्षा व्यवस्था, बाज़ार व्यवस्था, मीडिया इत्यादि (इन्हे अलग करके देखना गलत होगा। ये सब एक ही व्यवस्था के हिस्से है और एक दूसरे को पोषित करते हैं) वे हमारे सोचने के ढंग को प्रभावित ही नहीं, बहुत हद तक संचालित करते हैं। (इसका एक बड़ा उदाहरण: फटे कपड़े को high fashion बना पाना)।
हमारे दिमाग को complexity पसंद नहीं; उसे सीधा सीधा तर्क पसंद आता है; इसमे ध्रुविकृत सोच से आसानी होती है, क्योंकि एक तरफ सही, दूसरी तरफ गलत, हाँ या ना, 'विपरीत' आधुनिक दिमाग में बैठता है। विविधता इस दिमाग में मुश्किल पैदा करती है। और आज की व्यवस्था को विपरीत भाता है। इस व्यवस्था को बर्नी सैंडर्स नहीं चाहिए। इसे हिलरी क्लिंटन ही चाहिए और इसलिए एक डोनाल्ड ट्रम्प भी चाहिए। जो झगड़ा दिखाया जाता है वह एक छलावा है आम आदमी को भ्रमित रखने के लिए।   
दूसरी तरह से भी देखते हैं। आज के युग में जब किसी बात के 'क्यों' का उत्तर मिल जाता तो आदमी यह मान लेता है कि उसने समझ लिया पर यह कितना खोखला है इसकी जांच की जा सकती है। आप कोई भी काम क्यों करते हैं, इसका भले ही किसी के पूछने पर आप एक उत्तर दे दें पर वह सम्पूर्ण सत्य हो ज़रूरी नहीं। इसके कई उत्तर हो सकते हैं और कोई भी झूठ हो, ऐसा भी नहीं।  और यह तो सिर्फ चेतन स्तर पर जो हो रहा है वहाँ की बात हुई। किसी भी काम के अवचेतन कारण भी बहुत से हो सकते हैं। यानि एक ही कार्य या घटना के एक से अधिक कारण होते हैं। पर हमारी training नहीं होती की इस तरह सोचे तो अक्सर जो चलन में होता है या जिसे हमे बताया जाता है, जिसे हम मान लेते वही रहता है। वैसे हमारे यहाँ कारणों में दो मोटे विभाजन किए गए हैं - उपादान कारण और निमित्त कारण (उदाहरण: कुम्हार और उसका चाक ये घड़े के निमित्त कारण और मिट्टी उपादान कारण)। बहुत महत्वपूर्ण विभाजन है ये। आधुनिक दुनिया में इनकी बहुत चर्चा नहीं होती। आज यह भी चल रहा कुछ भी अधूरा से सच को (सम्पूर्ण) सच मान लिया जाता है। और आधुनिक आदमी के अहंकार की तो कोई सीमा है ही नहीं इसलिए वह यह कैसे मान ले कि उसे सोचना नहीं आता या जो वह सोच रहा, वह सोचना नहीं, उसे सुचवाया (मनवाया) जा रहा है।  कुछ तो छलावे में ऐसा हो रहा है और कुछ डर के मारे कि कहीं कोई यह नहीं कह दे कि भाई तुम तो दक़ियानूसी हो, या regressive सोच वाले हो, या पिछड़े हो, इत्यादि इत्यादि।    
सारे के सारे बुद्धिजीवी या तो विशेष हो गए हैं या उसकी फिराक में बैठे हैं। इसलिए हम, आम लोगों को अक्ल की बात बिना झिझक अपने जैसे लोगों के बीच करनी पड़ेगी। उसके लिए समय और स्थान दोनों निकालने पड़ेंगे।

Tuesday, June 21, 2016

खुल कर बात किए बगैर चारा नहीं




1992 में बाबरी मस्जिद वाली घटना के बाद चेन्नई में एक बैठक हुई थी। वहाँ के एक बड़े हकीम साहब जिनकी उम्र उस समय भी 80-85 के आस-पास रही होगी, भी उस बैठक में आए थे। बड़ी इज्ज़त थी उनकी और बहुत ही समझदार इंसान थे। चेहरे में भी ऐसा कुछ था कि आदमी सहज ही उनको सम्मान देने लगे। उन्होने एक बड़े पते की बात की थी। उन्होने कहा था कि पता नहीं क्या हो गया है कि अब हम लोग (हिन्दू, मुसलमान) आपस में बैठ कर मन की बात नहीं कराते, अपने गिले- शिकवे एक दूसरे से कहते नहीं (या तो झूठ बोलते हैं या गुस्से में गाली- गलौच)। यह बात कितनी सच है। सार्वजनिक गोष्ठियों में तो यह बात सत-प्रतिशत लागू होती है। औपचारिक भाई-चारे की बातें, गंगा-जमुनी तहज़ीब की बातें, चिकनी-चुपड़ी नकली, खोखली बातों से कभी कभी तो उबकाई होने लगती है। clichés लगते हैं सब। दर्द का रिश्ता अक्सर इतिहास में छुपा होता है, सो उसे भी देखना ही होगा। अकबर कितने उदार थे या नहीं यह मुद्दा उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि एक लंबे मुस्लिम शासन के दौर में हिन्दू के मन पर क्या गुजरी। वह भय से ग्रसित था या नहीं, वह असुरक्षित महसूस करता था या नहीं, इत्यादि मुद्दों पर खुले रूप से चर्चा हुए बिना समाधान मिलना मुश्किल है। किसी बच्चे पर बचपन में हुई हिंसा का असर सारी उम्र रहता है। तब तक रहता है जब तक वह उसे खुले मन से उस वाक्ये को, देख कर (दबा कर नहीं) उसे बिना पछतावे और बिना दोषारोपण किए एक घटना के रूप में स्वीकार न कर ले, जिसने हिंसा की या जिससे हिंसा हुई, उसे मन से माफ न कर दे। यह मौका हिंदुओं को मिला ही नहीं है अब तक। इसे हमे समझना होगा। और कमोबेश यह बात पसमंदा मुसलमानों और दलितों पर भी लागू होती है। पीड़ा है तो देखनी होगी। फटकार से,  भाषण या उपदेश से बात नहीं बनेगी। दोनों तरफ की शिकायते, उनके पीछे छुपे दर्द, को न कोई सुनता है, न उस पर कोई बाते होती हैं। न हिंदुओं की कोई समझ, इन गोष्ठियों में आने वाले मुसलमानों को है, न ही मुसलमानों की कोई समझ हिंदुओं में दिखाई देती है। और इसका दोष एक तरफ इन सेक्युलर लिबरल पॉलिटिक्स के सरमायेदारों का है तो दूसरी तरफ कट्टर हिन्दू- मुस्लिम राजनीति करने वालों को। इन दोनों ने ही ठेका ले लिया है कि देश में कोई ढंग की बात हे न होने पाये। यह कोका-कोला और पेपसी कोला जैसा मामला है (या ये, या वो), झूठी लड़ाई, जिसमे देसी, तरह तरह के शरबत गायब हो गए हैं।         
 
जर्मनी में नाज़ी दौर को लेकर बहुत आत्म-ग्लानि रही है। पर पिछले कुछ वर्षों में सरकार की अगुवाई में उन्होने इसका सामना किया। इस दर्द को, इस आत्म-ग्लानि पर सार्वजनिक तौर पर चर्चायेँ हुई, अन्य कार्यक्रम किए गए। दर्द को, उपदेश से, भाषण-बाजी से दबाया नहीं गया। बात-चीत के जरिये हल निकालने के प्रयास किए गए और उन्हे एक हद तक सफलता भी मिली है। हम भी ऐसा कर सकते हैं, पर इसके लिए छदमी लिबरल मुहावरे, नकली सेक्युलरिज़्म से बाहर आना होगा, आत्म-संकोच दूर करना होगा। मुक्त होना होगा। हमे अपने रास्ते स्वयं तय करने होंगे।