Sunday, June 21, 2020

अर्थ से शब्द की ओर



आज से करीब 30 वर्ष पहले पहाड़ के दूर दराज़ के गांवों में, गाँव के लोगों के अनुरोध पर, हमने स्कूल खोले। उस समय औसतन 7-10 गांवों के बीच एक सरकारी स्कूल हुआ करता था। पहाड़ के गाँव छोटे- छोटे और बिखरे हुए होते हैं। एक गाँव से दूसरे गाँव की दूरी तय करने में घंटों लग सकते हैं। अब तो खैर स्थिति बदल गई है। सड़के भी बन गई हैं और सरकारी स्कूलों की तादाद भी बढ़ी है।
शुरुआत के दिनों में हमारे स्कूल और सरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम लगभग एक ही जैसा हुआ करता था। स्कूल खोलने के कुछ समय बाद जब गाँव के लोगों से हमारी आत्मीयता बढ़ी, तो उनसे धीरे धीरे खुल कर बातें होने लगीं। तो वहाँ की बुजुर्ग महिलाएं हमसे अपने अनूठे अंदाज में, तरह तरह की शिकायतें करने लगी। कहने लगीं – “पढ़ लिख कर आदमी, न घर का रहता है, न घाट का”; “नौकरी की जड़ पत्थर पर होती है”; “इन्हे होना सिखाओ, दिखना/ दिखाना नहीं”, इत्यादि, इत्यादि। 
मेरा मानना है कि भारत के प्रायः हरेक गाँव में बड़ी उम्र के बहुतेरे लोगों की - उनके इलाके में जब आधुनिक शिक्षा ने पाँव पसारने शुरू किए होंगे तो - कुछ इसी प्रकार की शिकायतें और प्रतिक्रियाएँ रही होंगी। पर आधुनिकता की चकाचौंध में लगभग अंधे, हम जैसे आधुनिक लोगों ने उनकी बात को सुनकर अनसुना कर दिया होगा। बदलाव की एक आँधी सी आई देश में – कहीं दो शताब्दी पहले (जैसे कलकत्ता या चेन्नई) और कहीं बाद में।  पर यह सिलसिला तो बहुत पहले से शुरू हो गया था; भारत आज़ाद होने के बाद भी वही दिशा जारी रही। हमने बड़े बांधों और बड़े उद्योगों को नए युग के मंदिर कहना शुरू किया। हमारा नेतृत्व तो जैसे राजनैतिक आज़ादी प्राप्त करके संतुष्ट हो गया। जिसे महात्मा गांधी “भारत की आत्मा” कहते थे, उसका हमारे बड़े लोगों को कोई ज्ञान ही नहीं था। वे तो संभवतः उन मान्यताओं, उन तरीकों, उन आस्थाओं, उस ज्ञान को “पिछड़ापन” ही मानते रहे।
ईश्वर की कृपा ही कह सकते हैं कि जो हमारे बुज़ुर्गों ने कहा वह हमे सुनाई दे गया, हालांकि उन बातों को समझने में वक्त लगा। समझ तो पहले आदरणीय धरमपाल जी से चर्चा करके और फिर उनके कहे महात्मा गांधी को पढ़ने से बनी। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से विलायत होते हुए 1915 को भारत पहुंचे। 1915/16 से लेकर 1922/24 तक उन्होने देश का खूब भ्रमण किया, हर प्रकार के लोगों से मिले। देश को, यहाँ के साधारण को, यहाँ की शक्ति और यहाँ की कमजोरियों को समझने का भरपूर प्रयास किया।
हमे याद रखना होगा कि यहाँ आने से बहुत पहले ही 1909 में, वे “हिन्द स्वराज” लिख चुके थे। यह इस बात का प्रमाण है कि पश्चिम और आधुनिकता, वहाँ की सभ्यता, उसकी व्यवस्थाओं को, वहाँ के स्वभाव को, वे अपने विलायत और उसके बाद दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान अच्छी तरह समझ गये थे। पश्चिम को लेकर उनके अंदर किसी प्रकार की कोई शंका नहीं रह गई थी – न कोई भ्रम, न कोई मोह। भारत लौटने के बाद अब खुले मन और साफ दिमाग से वे इस देश, यहाँ की सभ्यता, स्वभाव और इस देश के साधारण को समझना चाह रहे थे। आधुनिकता की गहरी समझ पहले से ही थी, उनके पास। यहाँ का पढ़ा-लिखा वर्ग, जो भले ही अंग्रेजों का विरोध करता रहा हो, पर आधुनिकता की चकाचौंध से बुरी तरह प्रभावित था। इस वर्ग से जल्दी ही, शायद बंबई में जहाज से उतरने के कुछ ही दिनों में, उनका मोह भंग हो गया।
उन शुरुआती कुछ वर्षों में, महात्मा गांधी ने जो कहा वह खुल कर कहा – जो खा, समझा उसे वैसा ही कहा। बाद के दिनों में संभव है उन्हे बहुत से राजनैतिक समीकरणों को ध्यान में रख कर, संभल कर बात करना पड़ी हो। इसलिए महात्मा गांधी को समझने और उनके जरिये भारत को समझने में उनके 1922/24 से पहले के वक्तव्य और लेख बहुत सहायक हैं।
उन शुरुआती दिनों में गांधी जी ने, भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली का विनाश करके जो मैकौलियन तर्ज़ पर अंग्रेजों द्वारा शिक्षा की प्रणाली यहाँ लायी गई, उसका अच्छा विश्लेषण किया है। उनका मानना है कि इस नई अँग्रेजी शिक्षा ने हमारे घर और स्कूल के बीच दूरी बढ़ा दी है। अभिप्राय है कि हर सांस्कृतिक आयाम में घर के प्रतिमान अलग और स्कूल जिन प्रतिमानों का प्रतिनिधित्व करता है, वे अलग हो गये। भाषा, पोशाक, उठने-बैठने के तरीके इत्यादि सभी में, घर अलग और स्कूल अलग हो गया। और बच्चे के मन में घर, गाँव, समाज को लेकर एक हीन भावना व्याप्त होने लगी और वह स्वतः ही उन चीजों की, उन प्रतिमानों की, नकल करने के लिए प्रवृत्त होने लगा जिसे वह स्कूल या शिक्षा से अनायास ही जोड़ने लगा।              
अपने इतिहास में झाँकने से हमें यह बात और भी अधिक स्पष्ट होती है। 1824 में कलकत्ता के नजदीक बैरकपुर की छावनी में एक बड़ा सिपाही विद्रोह हुआ था जिससे अंग्रेज़ बुरी तरह घबरा गये थे पर किसी तरह उन्होने स्थिति को काबू में कर लिया था। 3 वर्ष बाद इस स्थिति के संदर्भ में विलियम बेंटिक जो उस समय गवर्नर जनरल था, उसने लंदन के उच्च अधिकारियों को एक पत्र लिखा जिसमे ऐसा कुछ कहा कि, अब स्थिति सामान्य हो रही है। भारत का (अँग्रेजी शिक्षा से) पढ़ा लिखा वर्ग अब अपने तौर तरीके छोड़ कर हमारी नकल करने में लग गया है। आधुनिक शिक्षा का हीनता और उसके बाद नकल करने की प्रवृत्ति के गठजोड़ को या तो अंग्रेजों ने समझा या उसके बाद महात्मा गांधी ने। गांधी जी के पीछे चलने का दावा करने वालों ने भी इसे नहीं समझा – आज़ादी के पहले भी और उसके बाद भी।
हमारी ग्रामीण महिलाएं इसी बीमारी को, या इसी दोष को, अपने अंदाज़ में हमे बता रही थी जब उन्होने कहा “उन्हे होना सिखाओ, दिखना/ दिखाना नहीं”। हमारे लिए तो यह एक मंत्र भी और सूत्र भी, जैसा बन गया जिसने आगे की हर दिशा का मार्गदर्शन किया। इस एक सूत्र ने बहुत सी परतें खोलने का काम किया। हमने देश में अलग अलग शिक्षा व्यवस्थाओं के अंतर्गत चलने वाली पाठ्यपुस्तकों का बारीकी से अध्यन किया और पाया कि अनजाने ही उनमे ऐसी बातें भरी पड़ी हैं जिनसे हीनता और नकल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे किताबें एनसीआरटी की हैं या आईसीएससी या शिशु मंदिर की। मसलन कक्षा 3 की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में एक पाठ सरोजिनी नायडू पर था जिसमे शुरू की ही पंक्तियों में कुछ ऐसा लिखा था “सरोजिनी नायडू बहुत होशियार थीं। पाँच वर्ष की उम्र में वे अँग्रेजी में सुंदर कविता लिखती थीं”। इसे उदाहरण के तौर पर दे रहा हूँ। यह उत्तर प्रदेश के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताब की बात है। उत्तर प्रदेश में बच्चा घर पर अवधी, भोजपुरी, ब्रज, कौरवी, इत्यादि अपनी बोली बोलते होंगे। कक्षा तीन में आम तौर पर बच्चे की उम्र लगभग 8 से 9 वर्ष की होती है। इन बच्चों ने पहले से ही अँग्रेजी को लेकर पता नहीं क्या-क्या सुन रखा होगा। पता नहीं इस भाषा से वह कितना आतंकित होंगे, कितनी दूर की कौड़ी उसे समझते होंगे? इसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है, पर वह मुश्किल नहीं। जब 8/9 साल का बच्चा हिन्दी की पुस्तक में यह पढ़ता है कि सरोजिनी नायडू बड़ी होशियार थी तो उसको उनके अँग्रेजी ज्ञान से ज़रूर जोड़ता होगा। और फिर यह कि सरोजिनी जी तो पाँच वर्ष में ही अँग्रेजी में कविता लिख लेती थी और यह बच्चा तो अभी a,b,c भी ठीक से नहीं जानता, तो यह तो अपना पूरा आत्म-विश्वास ही खो देता होगा। इस बात को समझने के लिए कोई बड़ा मनोवैज्ञानिक होने की ज़रूरत नहीं। इस तरह की तमाम बातें जो अनजाने ही बच्चे का मनोबल तोड़ देती हैं हमारी पाठ्यपुस्तकों में भरी पड़ी हैं।
धीरे धीरे यह बात समझ आने लगी कि हमारी किताबें मनोबल तोड़ने के काम के साथ साथ, गाँव और गांवों से, भारत (इंडिया से अलग) से जुड़ी, साधारण आदमी की मान्यताएँ, स्थानीय भाषाएँ, उनकी पोशाक, उठने-बैठने के तरीके, काम करने के तरीके, उनकी पारंपरिक ज्ञान पद्यतियाँ - सभी को “पिछड़ेपन” की कोटि में डालने का काम और शहर, शहरीकरण, आधुनिकता, अँग्रेजी भाषा, पश्चिमी संस्कृति को (“विकास” या “विकसित”) ऊंचा दर्जा देने का काम कर रही हैं।
इसी क्रम में हमने गांधी जी की “बुनियादी शिक्षा” को समझने का प्रयास किया। और यह समझ बनी कि गांधी जी वस्तु (object) और वास्तविकता (reality) को विषय (subject) से अलग रखते थे और उनकी प्राथमिकता में वस्तु और वास्तविकता का स्थान विषय से ऊंचा था। आज की शिक्षा में, ठीक इसके विपरीत, विषयों का अधिमूल्यन किया गया है और स्वतः ही वस्तु/वास्तविकता का महत्व गिर गया है, वे पीछे धकेल दिये गये। इसका एक परिणाम शिक्षा का पूरी तरह अव्यवाहरिक हो जाना है।   
सही मायने में शिक्षा का उदेश्य वस्तु (जो कुछ भी हमारे अंदर और बाहर के संसार में है) और उसकी वास्तविकता को समझना ही तो है। वस्तु और वास्तविकता नैसर्गिक है। धरती, धरती में पाये जाने वाले भौतिक पदार्थ, सूरज, चाँद, सितारे, अन्तरिक्ष, पेड़-पौधे, हरियाली, पशु-पक्षी, मनुष्य और उसके अंदर का संसार (ये सारे वस्तु की कोटि में आते हैं) और जिन नियमों के अंतर्गत ये कार्यरत हैं, जिस परस्परता में यह रहते हैं, इसे वास्तविकता कहा जा रहा है। इन्हे समझने के उद्देश्य से मनुष्य ने विभिन्न कोटियाँ बनाई - विषयों का तरीका निकाला और वर्गिकरण किया। यही बात पाठ्यपुस्तकों के ऊपर भी लागू होती है। विषय और पुस्तकें मनुष्य ने बनाई, अपनी सुविधा के लिए। वे एक प्रकार से माध्यम या साधन हैं, लक्ष्य तो वस्तु और वास्तविकता को समझना ही होता है।       
मनुष्य एक सुंदर जीवन जी सके, उसका मनोबल, सामर्थ्य, अस्मिता का भाव और आत्म-विश्वास ऊंचा रहे और वह अपनी जीविका ठीक से चला सके, बगैर दुनिया की चूहा दौड़ में शामिल हुए यही ध्येय उत्कृष्ट धेय है। भारत की महानता तो इसी बात में रही है कि यहाँ का साधारण ही श्रेष्ठ था। हमने पाया की आधुनिक शिक्षा का इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है। इसलिए हमने अपने स्कूलों में पाठ्यपुस्तकों को एक किनारे किया। पाठ्यपुस्तकें भी तो विषय की ही तरह माध्यम ही हैं, लक्ष्य नहीं। विषय वस्तु को हमने स्थानीय (भोगौलिक एवं सांस्कृतिक) परिवेश से जोड़ा। आस-पास के पेड़-पौधे, पशु पक्षी, नदी-नाले, पर्वत, खेती के तरीके, आस-पास की वस्तु और शिल्प कला, स्थानीय त्योंहार, स्थानीय पकवान, अनाज, उनके संरक्षण के तरीके, पन-चक्की, स्थानीय ज्ञान परम्पराएँ, वहाँ की बोली-भाषा, मुहावरे, कहावतें, किंवदंतियाँ, इत्यादि हमारी विषय-वस्तु बने। इन्हे केंद्र में रख कर न सिर्फ हम विभिन्न विषयों की व्यावहारिक जानकारी दे पाए पर साथ ही दो महत्वपूर्ण काम भी सहज ही हो गए। एक तो हमे ढेर सारे पारंपरिक ज्ञान परम्पराओं का पता चला। भोजन, अनाज और स्वास्थ्य का संबंध, पशु-पक्षियों के व्यवहार, बादलों और आसमान की छटा, हवा की गति और दिशा का मौसाम, खेती से संबंध, तिथियों और चंद्रमा की कलाओं, पश्चिमी आकाश का सूर्यास्त के समय के रंग का खेती और मौसम की भविष्यवाणियों से संबंध, अच्छे और बुरे व्यवहार की सामान्य बातें – ये सब स्थानीय बोली-भाषा की कहावतों, दोहों, मुहावरों और कहानियों मे भरा पड़ा है। यह एक अनूठा और गज़ब का संसार है, जो पूरे भारत के लोक जीवन में घुला-मिला है और आधुनिक शिक्षा की आँधी में तेजी से लुप्त होते जा रहा है। हमने इस ज्ञान को बच्चों को प्रत्यक्ष जाँचने के लिए प्रेरित किया। मसलन अगर यह मान्यता है कि फागुन के महीने में जब कौवा अपना घोंसला बनाता है और वह पेड़ के बीच में यानि पत्तों के बीच में (न बहुत ऊपर न बहुत नीचे) बनाता है तो मान्यता है कि उस वर्ष अच्छी बारिश होगी और अगर घोंसला पेड़ के ऊपरी हिस्से में किसी साल बनाता है तो उस वर्ष बारिश बहुत ही कम होगी। ध्यान रखने की बात है कि फागुन में घोंसला बनता है और बारिश आषाढ़ से शुरू होती है – बीच में 3-4 महीनों का फासला है। हमने इस मान्यता पर अपने स्कूलों में प्रोजेक्ट बना कर इस बात को जाँचने की कोशिश की, एक नहीं लगातार कई वर्षों तक और हमे इसके सुखद परिणाम मिले। इसी प्रकार मान्यता है कि अगर पश्चिमी आकाश का रंग सूर्यास्त के वक्त रक्तिम होगा तो ठीक नौ माह के बाद (हमारे तिथि की गणना के अनुसार जो चंद्रमा से संचालित है, न कि सूरज से) तो उस दिन जहां, जिस गाँव में सूर्यास्त देखा गया है वहाँ, बारिश ज़रूर होगी। इसे भी हमने जांचा और पाया कि यह ज्ञान कारगर है। इससे हमने यह समझ आया कि हमारा पारंपरिक ज्ञान सदियों के गहरे और बारीक अवलोकन (observation) पर आधारित है और उसमे नैसर्गिक अवयवों के आपसी संबंध देखे गए है – ऐसा-ऐसा होता है तो ऐसे-ऐसे परिणाम देखने को मिलते हैं। इसमे आज के आधुनिक विज्ञान की तरह जिरह सिर्फ “क्यों” तक नहीं सिमटती वरन यहाँ हमारी लोक परम्पराओं में “क्या” को समझने का प्रयास है। लोक ज्ञान परम्पराएँ अनुभवजन्य ज्ञान (empirical) होती हैं, जिन्हे हमने आधुनिकता की चकाचौंध में रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। पर हमारा अनुभव है इसे अनुभव के आधार पर जाँचने की ज़रूरत है और सही हों तो सम्मानित करने की ज़रूरत है।
स्थानीय परिवेश से शिक्षण के हमारे प्रयोग से हमने पाया कि बच्चे पढ़ा-लिखा होने और शिक्षित होने के भेद को समझ पाये। उनके बुजुर्ग जिनको वे अनपढ़ होने की वजह से, एक तरफ उन्हे तिरस्कार की नज़र से देखते थे और दूसरी तरफ अपने में हीन भावना महसूस करते थे, को वे धीरे धीरे सम्मान की नज़र से देखने लगे और उनमे अस्मिता के भाव की भी वृद्धि हुई। अब वे समझ पाये कि जो ज्ञान उनकी किताबों में नहीं था, उनके बुज़ुर्गों के पास था और वह कारगर था, व्यावहारिक था – जिसे वे अपने स्कूलों में प्रयोग कर के सिद्ध कर पाये।
इस क्रम में हमने अपने पढ़ाने के तरीके में तब्दीली करनी पड़ी। ज्ञान को अस्तित्व या प्रकृति सहज बनाने के प्रयास हुए। उदाहरण के लिए, हमारी तिथि की गणना अस्तित्व सहज है। चाँद को देख कर आप तिथि का अंदाज़ा लगा सकते हैं (प्रथमा, दूज, अमावस्या, पूर्णिमा इत्यादि) जबकि अँग्रेजी तारीखें आपको याद रखनी पड़ती हैं। दूसरा उदाहरण: किताबों में लिखा होता है, “सूरज पूरब से उगता है”। इस विधि को हमने ठीक किया। हम पढ़ाते थे, “सूरज जिस दिशा से उगता है, उसे हम पूरब कहते हैं”। कहने का मतलब शब्द और अर्थ या वस्तु/वास्तविकता में भेद करना हमने सहज ही प्राप्त किया। शब्द सिर्फ एक नाम है। नामकरण मनुष्य ने किया है। अस्तित्व में घटनायें, वस्तुएँ पहले से हो रही हैं, इनमे - नाम और वास्तविकता में - भेद करना आवश्यक है। नहीं तो प्रतीक, नाम, झंडे, शब्द असली वस्तु पर भारी पड़ने लगते हैं और हम असलियत से दूर होते चले जाते हैं और हमे पता भी नहीं चलता।
स्थानीय परिवेश (भोगौलिक एवं सांस्कृतिक) से शिक्षण का सहज परिणाम यह भी होने लगा कि पढ़ाई वस्तु केन्द्रित (विषय केन्द्रित नहीं) होने की वजह से स्वतः ही समन्वित (integrated) ढंग से होने लगी। वस्तु/ वास्तविक्ता को समझने के लिए एक नहीं अनेक विषयों की आवश्यकता होती है। वे सहज ही जुडने लगे। विषयों के बीच जो एक (अस्वाभाविक) लकीर हमने खींच दी है वह टूटने लगी। जैसे, खेती की बात के साथ गणित, स्वास्थ्य, लोक ज्ञान, भोजन, पाकशास्त्र सहज ही समन्वित होने लगे।                      
जैसा महात्मा गांधी कहा करते थे कि हम आधुनिकता और उसके अनेक अवयवों से चौंधिया गए हैं और अपने सब कुछ को बेकार समझ कर नकल करने में लग गए हैं। स्थानीय परिवेश से शिक्षण, जो कम से कम 7/8 कक्षा तक तो बगैर किसी परेशानी के संभव है, से हम बहुत कुछ बड़े सहज ढंग से बदल कर पटरी पर ला सकते हैं। इसके अलावा जो सरकारी शिक्षक बंधुओं को ढेर सारे सरकारी आंकड़े इकट्ठे करने के लिए अलग से समय निकालना पड़ता है, उससे भी छुट्टी मिल सकेगी और स्थानीय आंकड़े – मनुष्य और पशु की गणना, मौसम की जानकारी (जैसे प्रतिदिन बारिश का पैमाना, उच्चतम और न्यूनतम तापमान, हवा की रफ्तार, नमी इत्यादि) हम स्कूलों में आसानी से रख सकते हैं, स्थानीय स्तर के नदी, नालों, तालाबों, झीलों, कुएं, बावड़ियों की जानकारी आसानी से स्कूलों में एकत्रित कारवाई जा सकती है। स्थानीय मेले-ठेले, बड़े उत्सव – उनमे क्या क्या बिकता है, उनका इतिहास, उनसे जुड़ी कहानियाँ और गीत – ये सब स्कूलों में एकत्रित करवाए जा सकते हैं। स्थानीय उत्पाद, मनरेगा से मिलने वाली आमदनी की जानकारी स्कूलों में रखी जा सकती है – स्कूलों में सहज ही एकत्रित होती रहेगी और उनका नवीनीकरण भी होते रहेगा। इस प्रकार की तमाम जानकारियाँ स्कूलों के पाठ्यक्र्म का हिस्सा बन सकती हैं। स्कूल एक प्रकार से स्थानीय रिसोर्स केंद्र के रूप में काम कर सकता है। इन जानकारियों को एकत्रित करने की प्रक्रिया में बच्चे बहुत कुछ अपने क्षेत्र के बारे में तो सीखेंगे ही, उन्हे शोध करने के तरीके और बहुत सा व्यावहारिक ज्ञान सहज ही प्राप्त होता चला जाएगा। हमारा मानना है, इससे गांवों से जो शहर की तरफ पलायन होता है, उसमे भी फर्क आयेगा। आज की पढ़ाई का रुख शब्द से अर्थ की ओर है। उसे बादल कर सीधा करने की ज़रूरत है – अर्थ से शब्द की ओर।     

आषाढ़ कृष्ण पक्ष 12, 2077
जून 18, 2020 
पवन कुमार गुप्त
“सिद्ध”, मसूरी
pawansidh.blogspot.com        
    
 

No comments: