एक प्रस्ताव
साल 1991 में भारत में एक बड़ा बदलाव आया।
भारत ने दुनिया के लिए अपनी अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोलने का निर्णय लिया। हम
वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने लगे और वैश्वीकरण ने हमें लील लिया। 1996 में
हमने (सिद्ध) इसी मुद्दे को लेकर एक सप्ताह का एक गहन शिविर आयोजित किया/ विषय था, “नई
अर्थव्यवस्था पर पुनर्विचार : गाँधी और आगे का मार्ग”। यह संवाद था, सेमिनार नहीं, जहाँ लोग आकार
अपनी बात बोल (पढ़) जाते हैं,
एक दो घंटे रुकते हैं और बहुदा दूसरों को सुनने की ज़रूरत नहीं समझते। हमारे शिविर
के लिए यह सोचा गया कि सभी प्रतिभागी एक साथ एक जगह सप्ताह भर रहें, इस विषय पर
ईमानदारी से अपनी बात रखें,
दूसरों को सुनें,
सोचें,
आत्म-चिंतन करें और मौलिक प्रश्न उठने दें। प्रश्न के जवाब मिल ही जायें ऐसा कोई
आग्रह नहीं होगा। करीब 25-26 लोगों ने इस शिविर में हिस्सा लिया और सभी पूरे समय
शिविर में रहे।
प्रायः सभी प्रतिभागियों के लिए यह एक
अद्भुत अनुभव रहा। इस शिविर में अन्य महत्वपूर्ण साथियों के साथ हमारे बीच श्री किशन
पटनायक भी थे। जाने माने समाजवादी थे किशन जी, पर सामान्य राजनैतिक नेताओं से अलग थे –
गहरी ईमानदारी (सिर्फ आर्थिक मामलों तक ही उनकी ईमानदारी सीमित नहीं थी; जीवन के अन्य
पक्षों में भी वे ईमानदारी बरतते थे) के अलावा वे एक मौलिक चिंतक थे। अपने विचारों
से चिपके रहना उनकी फितरत में नहीं था। पढ़ी हुई और सुनी हुई बातों पर मनन करना, और ठीक लगे तो अपने
विचार को बदलने की हिम्मत भी वह रखते थे।
शिविर के तीसरे या चौथे दिन किशन जी ने एक
अद्भुत बात कह कर हम लोगों को - जो उन्हे बरसों से जानते थे - चौंका दिया। गाँधी
जी पर बात करते वक्त उन्होने यह स्वीकार किया उन जैसे समाजवादी गाँधी को समझने में
भूल करते रहे हैं। गाँधी जी की आध्यात्मिकता को, उन जैसे लोग, एक ढकोसला, भारत के आम जन को लुभाने फुसलाने का एक
तरीका भर मानते रहे हैं और एक प्रकार से उनके इस आध्यात्मिक पक्ष की अनदेखी करते
रहे या उसे नकारते रहे हैं – और यह एक भयंकर भूल हुई है। किशन जी ने आगे कहा कि अब
उन्हे एहसास होने लगा है कि जिस प्रकार “रोटी, कपड़ा और मकान” मनुष्य की बुनियादी ज़रूरत है, ठीक उसी प्रकार
“अध्यात्म” भी मनुष्य की बुनियादी ज़रूरत है। इसे नकारा नहीं जा सकता। उनके जैसे एक
दृढ़ समाजवादी के लिए ऐसा कहना एक बड़ी बात थी।
मैं कोई गाँधीवादी नहीं हूँ पर गाँधी जी से
बहुत कुछ – भारत के साधारण आदमी की खूबसूरती,
उसकी ताकत,
उसकी सहज नैतिकता,
साधारण का सौंदर्य बोध,
उसकी आस्था और उस आस्था की शक्ति,
और इन सब का भारत की सभ्यता से गहन रिश्ता – समझने को मिला और फिर जो पहले दिखाई
नहीं देता था वह दिखने भी लगा। साथ ही पश्चिम और आधुनिक सभ्यता और आधुनिक व्यवस्था
की एक गहरी समझ भी,
उन्ही की बदौलत मिली। ऊपर ऊपर से साफ सुथरी,
न्यायसंगत लगने वाली व्यवस्थायेँ और आधुनिक संस्थाओं का असली चरित्र उजागर होने
लगा। यह भी समझ आया कि इन दोनों - हमारे लोगों और हमारे तरीकों, जो ऊपर ऊपर से
बेतरतीब और कभी कभी फूहड़ लगते हैं और आधुनिकता जो ऊपर ऊपर से साफ सुंदर लगती हैं –
के ऊपरी आवरण को हटा कर देखने की ज़रूरत है और उसकी कुछ कूवत भी पैदा हुई। व्यवस्था
क्या होती है और कैसे वह अदृश्य और छद्म रूप से हमारे व्यवहार और सोच को प्रभावित
करती है,
इसकी समझ बनी। इसके लिए गाँधी जी का एवं अन्य कुछ महान हस्तियों का सदैव ऋणी
रहूँगा। मुझे लगता है कि आधुनिक युग में,
पिछले 100 एक वर्षों में राजनीति के क्षेत्र में गाँधी एक मात्र बड़े नेता हैं जिन्होने
खुल्लम-खुल्ला राजनीति में “धर्म” की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। यहाँ तक कह दिया कि
“बिना धर्म की राजनीति मृतक शरीर के समान है”। गाँधी कोई “सेक्युलर” नहीं थे जैसा
कि उन्हे बना दिया गया है। उन्होने भारतीयता की महानता को देखा, उसकी बातें की –
यहाँ की सभ्यतागत समझ कि मनुष्य प्रकृति का ही हिस्सा है, उससे अलग नहीं
और मनुष्य एवं प्रकृति के बीच के सहज रिश्ते,
प्रकृति एवं मनुष्य में निहित व्यवस्था और उससे जनित उनके अंतर-संबंध कैसे हों, इससे निकले
सिद्धान्त और नैतिकता – और इन पक्षों को राजनीति में लाने का भरपूर प्रयास किया। उन्होने
यह भी देखा कि भारत का साधारण पहले से ही नैतिक जीवन जीता है। यह तो पढ़े-लिखे हैं, जो बिगड़ गए हैं।
वे भौतिकवादी कदापि नहीं थे पर ऐसा नहीं कि मनुष्य की बुनियादी भौतिक आवश्यकताओं
और उत्सवों में जो थोड़ा बहुत अतिरेक होता है,
उसकी ज़रूरत नहीं समझते थे। [इस संदर्भ में उनका 22 दिसंबर 1916 को, तब के म्योर
कालेज और आज के इलाहबाद विश्वविद्यालय में “क्या आर्थिक उन्नत्ति ही वास्तविक
उन्नत्ति है” विषय पर दिया व्याख्यान पढ़ने योग्य है।]
पिछले 70-75 वर्षों से भारत की राजनैतिक
मुख्यधारा (चाहे वह किसी भी दल की हो) एवं अन्य संगठन और आंदोलन (जैसे नर्बदा बचाओ, जी पी आंदोलन, माओवादी आंदोलन, गाँधीवादी
संस्थाएं इत्यादि) एक तो “सेक्युलर” रहे हैं दूसरे उनकी मांगे कुल मिला कर मनुष्य
के भौतिक पक्ष तक ही सीमित रहीं हैं। पर सच्चाई यह है की मनुष्य मात्र शरीर ही
नहीं है,
शरीर भी है इसलिए उसकी आवश्यकताएँ भी सिर्फ भौतिक (आवश्यकताओं) तक ही सीमित
नहीं हैं। सम्मान,
विश्वास,
इत्यादि भी उसकी बुनियादी ज़रूरत में आते हैं। मनुष्य में न्याय की, सही- गलत की एक
समझ पहले से निहित होती है,
भले ही व्यवहार में वह ऐसा न करे। यह सब मनुष्य में, उसकी सीरत में निहित है। वह ऐसा ही है।
यही उसका होना है। दूसरी तरफ भय,
क्रोध,
पीड़ा,
दुख,
आपसी जलन,
आत्म-हीनता,
आत्म-संकोच,
कुंठा,
हताशा कुछ ऐसे भाव हैं,
जिनसे वह दूर रहना चाहता है,
बचना चाहता है,
भले ही ऐसा कर न पाये। यह प्रवृति भी उसके होनेपन में निहित है। यह एक सनातन और
शाश्वत (हर काल और हर जगह) सत्य है। इसे हर एक अपने अंदर और दूसरे में भी देख सकता
है। इसे किसी तर्क की आवश्यकता नहीं,
ध्यान देने से सहज ही स्पष्ट हो जाता है।
भारत सदियों से आहत रहा है। उसका घाव पुराना
है जिसका इलाज तो दूर,
उसे ठीक से जाँचा परखा भी नहीं गया बल्कि अक्सर उसकी अनदेखी हुई है। लीपा-पोती ही
हुई है। भारतीय मूल के,
त्रिनिदाद में रहने वाले,
नोबल पुरुसकार से सम्मानित विद्याधर सूरजप्रसाद नाइपॉल ने भारत को एक ‘घायल/आहत सभ्यता’ कहा है। बात में
दम है। इस्लामिक युग से भारत पर भयंकर हिंसा हुई, कई प्रकार के ज़ुल्म हुए – शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक -
इससे इनकार नहीं किया जा सकता। उसके बाद अंग्रेजों के युग में इस सब के साथ एक बात
और जुड़ गई – हिंसा के साथ साथ एक हीनता का भाव भी समाज में व्याप्त किया गया। इन
दोनों रोगों को - भयंकर हिंसा से फलित भय और हीनता - हमने कभी हिम्मत करके देखा तक
नहीं,
इलाज तो दूर की बात है। इन सबका हमारे जन मानस के अंतरतम तक, गहराइयों तक, असर गया है।
अँग्रेजी शिक्षा ने इसमे चार चाँद और लगा दिये जिसका नतीजा समाज के (कम या ज़्यादा)
पढ़े-लिखे वर्ग में व्याप्त क्रूरता,
आक्रामकता,
बदसलूकी,
कमजोरी,
बदतमीजी,
भौंडेपन,
गाली-गलौज,
और दूसरी तरफ दोगलेपन,
छोटी मोटी चालाकियों,
एक प्रकार के आलस्य,
दूर दृष्टि की कमी,
नकल करने की प्रवृति और बनावटीपन,
इत्यादि में दिखाई देता है।
महात्मा गाँधी की संवेदनशीलता और अंतर्मुखी
स्वभाव ने इस बीमारी को पहले अपने अंदर और फिर पढे-लिखे समाज में यह किस कदर
व्याप्त है,
इसे महसूस किया होगा। इसलिए एक बार नहीं कई बार उन्होने भारत के पढे-लिखे वर्ग को, उसके दोगले और डरपोक
चरित्र और उसकी नकल करने की प्रवृति के लिए हड़काया। अंग्रेज़ तो बहुत पहले इसे समझ
गए थे और इसका शिक्षा के मार्फत खूब फायदा भी उन्होने उठाया। 1827 में गवर्नर जनरल
विलियम बेंटिक,
एक पत्र में इस बात का ज़िक्र भी करते हैं। याद रहे 1824 में कलकत्ते के पास
बैरकपुर छावनी में एक बड़ा सिपाही विद्रोह हुआ था जिसे अंग्रेजों ने काबू तो कर
लिया पर वे इससे बेहद घबरा गए थे। इस संदर्भ में, 3 वर्ष बाद 1827 में लंदन के अधिकारियों को
लिखे पत्र में बेंटिक कुछ ऐसे लिखता है,
“अब घबराने की आवश्यकता नहीं। भारत का पढ़ा-लिखा वर्ग अब अपनी परम्पराओं को छोड़ कर, दान-दक्षिणा
देना बंद करके उस बचे हुए पैसों को या तो हमे प्रसन्न करने में या हमारे जैसा बनने
पर खर्च करता है”।
इसलिए गाँधी जी की राजनीति भारत को केवल
राजनैतिक स्वतन्त्रता दिलाने तक सीमित नहीं थी। वे सत्ता हस्तांतरण नहीं चाहते थे।
वे तो भारत को मानसिक रूप से मुक्त करना चाहते थे। उसके मानस पर पड़े घावों का इलाज
करना चाहते थे। आत्म-विश्वास,
और अपने स्वभाव और सभ्यतागत दृष्टि के अनुकूल सहज जीवन जीने के लिए लोगों को स्वतंत्र
करना चाहते थे। भारत के साधारण की और यहाँ की सभ्यतागत दृष्टि की श्रेष्ठता के वे
पहले से कायल थे। सत्य उनके लिए ईश्वर का रूप था और यहाँ की सभ्यतागत मान्यताएँ
उन्हे इसी सत्य से निकली लगती थी जिसमे एक प्रकार की निजी और सार्वजनिक नैतिकता
पनपती और पोषित होती है;
जिसमे संयम,
आवश्यकता (need)
और अतिरेक (want)
के भेद की गहरी समझ है। भारत के साधारण और उसकी जीवन शैली में उनको यह सब पहले से
मौजूद दिखता था इसलिए वे ऐसे स्वराज की कल्पना करते थे जिसमे यह फिर से पोषित और पल्लवित
हो सके। साधारण (व्यक्ति) अपने स्वभाव
अनुकूल सहज हो कर जी सके। साथ ही उन्हे अँग्रेजी शिक्षा और आधुनिकता के प्रभाव में
पढ़े-लिखों की चारित्रिक विकृतियाँ भी साफ नज़र आती थी। इसलिए वे आधुनिकता के
बुनियादी दोष को,
उसके द्वारा फैलाये भ्रम को भी उजागर करके उससे लोगों का मोह भंग हो, यह काम भी कर
रहे थे।
वे भारत और भारत के जरिये संभवतः दुनिया को
एक अलग राह पर ले जाना चाह रहे थे जो अस्तित्व सहज हो, प्रकृति के
नियमों के अनुकूल हो। पर शायाद बायें से दायें, गाँधीवादियों समेत – किसी भी राजनैतिक धारा ने उनकी बात या तो समझी
नहीं या उससे सहमत नहीं हुए। इस संदर्भ में उनका अहमदाबाद में साबरमती आश्रम में 17
मार्च 1918 को दिया प्रवचन पढ़ने योग्य है। मिल मजदूरों की हड़ताल के 40 वें दिन जब
वे खुद अनशन पर बैठे उस समय उन्होने यह प्रवचन दिया जिसमे वे यह खुल कर कहते है कि
सभी धाराओं के लोग - आपसी वैचारिक मतभेदों के बावजूद - भारत को यूरोप जैसा ही हुआ
देखना चाहते हैं। वे मानते हैं की भले ही इनमे से कुछ लोगों ने शास्त्रों का
अध्ययन भी किया है फिर भी वे “भारत की आत्मा” को नहीं पहचानते। यह बात महत्व रखती
है यदि हमे कुछ सार्थक प्रयास करना है तो।
आज के राजनैतिक माहौल में भी गाँधी जी की यह
बात पूरी तरह लागू होती है। इससे हमे अच्छी तरह समझ आता है भारत के विभिन्न दल एक
ही पटरी पर चलते क्यों नज़र आते हैं। यह रोग पुराना है। इसका संबंध भी अँग्रेजी
शिक्षा और आधुनिकता से ही है। पिछले कई वर्षों में सिर्फ एक बात और जुड़ी है की
धर्म और परंपरा और भारतीयता की बात करने की पूरी स्पेस (जगह) हमने सिर्फ एक दल को
दे दी है,
जिसे स्वयं इसकी समझ नहीं।
यह बातें गाँधी जी को महिमामंडित करने के
लिए नहीं की जा रहीं। संदर्भ के लिए यह ज़रूरी था। इस पर आगे विस्तार देने की ज़रूरत
है। आज इस कोरोना के माध्यम पूरा संसार थम सा गया है। तेज़ भागती बावली दुनिया धीमी
पड़ गई है। संकट प्राकृतिक हो या जानबूझ कर मनुष्य जाति द्वारा पैदा किया गया है - यह
अलग मुद्दा है पर द्वितीय महायुद्ध के बाद शायद पहली बार ऐसी स्थिति आई है जिसने
हम सबको अंदर और बाहर,
जीवन के अनेकों पक्षों का पुनरवालोकन करने को प्रेरित किया है। इस आधुनिक व्यवस्था
और इसकी बुनियादी मान्यताओं का खोखलापन सामने आने लगा है। यह एक मौका तो ज़रूर है
की हम नये सिरे से दुनिया जो एक अरसे से “आधुनिकता” की चपेट में जिस “विकास” और
“प्रगति” के रास्ते अंधी दौड़ दौड़ती रही है उसको और जिस आधुनिकता ने हमें सोचने की जिस
चौखट (paradaigm)
में अनजाने ही कैद सा कर रखा है उसे ठीक से जाँचे।
हममे से बहुत से लोग विरोध की राजनीति भी
करते रहे हैं। पर यह समय है ईमानदारी से यह जाँचने का कि क्या वह विरोध भी इसी
ढाँचे,
इसी चौखट (paradigm)
के अंदर से ही नहीं था?
क्या उस विरोध की भूमि में भौतिकता के अलावा कहीं आध्यात्मिकता, सभ्यतागत
मान्यताएँ,
(सनातन) सत्य,
धर्म,
और सनातन से मेल खाती नैतिकता की अहम जगह थी?
आज शायद यह मौका है (जो बार बार नहीं आता),
जब पूरी दुनिया हिली हुई है,
किसी के पास समाधान नहीं है कि हम हिम्मत से अपनी सोच, अपने विचारों, अपनी मान्यताओं
पर पुनर्विचार करें और अगर पीछे भी जाना उचित लगे, समझ आये तो साहस दिखाएँ।
भारत अनेक समस्याओं से घिरा है। आज़ादी के
बाद समस्याएँ बढ़ी ही हैं। करोड़ों लोगों की न्यूनतम भौतिक आवश्यकतायेँ अभी पूरी नहीं
हुई हैं,
सभी प्रकार की विषमतायें (बावजूद आरक्षण के) बढ़ी हैं, गांवों की और
छोटे किसानों की,
कारीगर समाज की,
घरेलू किस्म के उद्योगों की,
गहरी उपेक्षा लगातार होती रही है,
पलायन बढ़ता जाता है,
शहर चरमरा रहे हैं,
आदिवासी लगातार अपनी जीवन शैली छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं, पर्यावरण की
समस्या विकराल रूप धारण कर ली है,
हिंसा और आतंकवाद (सभी प्रकार का) बढ़ता ही जा रहा, इत्यादि, इत्यादि। विरोध तो बहुत हुए पर कुछ खास हाथ
लगा नहीं। सरकारे आती हैं और चली जाती हैं। एक दल फिर दूसरा और फिर कोई नये दल की
सरकार – यह सब हमने देख लिया। 1967,
1977,1989 और
हाल में आम आदमी पार्टी का अवतरण। (शुरू के) इरादों पर शक करना मुश्किल हो जाता है
पर (बाद के) परिणाम सबके सामने हैं। शायद समय है हमारी बुनियादी मान्यताओं पर मंथन
करने का। “कैसे करें”
से ध्यान एक बार हटा कर,
आत्म-परीक्षण करने का – अपनी ही सोच,
मान्यताओं,
तरीकों और सोचने की चौहदी का।
इस “सोचने की चौखट” वाली बात को अधिक स्पष्ट
करने के लिए एक उदाहरण देना ठीक होगा। 1917 में चंपारण में जब उन्हे कोर्ट में
मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और मजिस्ट्रेट ने जब यह पूछा “क्या आप दोषी हैं
मिस्टर गाँधी?”।
तो गाँधी जी का जवाब था “जी हुज़ूर (my
lord), मैं दोषी हूँ” और फिर थोड़ा रुक कर कहते है “पर
आपके कानून के अनुसार”। इस एक ‘पर’ से वे कानून की
चौहदी से अपने को बाहर कर लेते हैं। (आपका) कानून तो तोड़ा ही है और इसलिए दोषी तो
हूँ ही पर एक तो वह आपका बनाया कानून है (कहीं न कहते हुए भी यह कह देते
हैं कि यह मेरा कानून नहीं है) और “पर आपके कानून के अनुसार” कहने के बाद वो अपनी
बात,
अपना तर्क (जो कानून के दायरे में नहीं आता) रखते हैं, जिसकी बैठक
कानून न हो कर,
सत्य है या जिसे वे कभी कभी अपने अंतरात्मा की आवाज़
कहते हैं। और अपनी बात पूरी होने के बाद वे मजिस्ट्रेट को एक प्रकार से ललकार कर
यह कहते हैं कि अब आपके पास दो ही विकल्प हैं। या तो अपने कानून के अनुसार मुझे
बड़ी से बड़ी सज़ा दो या फिर यदि मेरे बात ठीक लगती हो तो अपनी कुरसी छोड़ कर मेरे बगल
में आ जाओ। हम सब को गाँधी के इस ‘पर’ को समझना होगा, इसकी ताकत को
समझना होगा और आधुनिकता की चौखट लांघनी पड़ेगी।
‘व्यवस्था
परिवर्तन’
की बातें हम करते रहे हैं,
संभवतः यह समय है कि जहाँ व्यवस्थाओं की बैठक है, वे जहाँ से जन्म लेती हैं उन प्रतिमानों तक
जा कर जाँचने का। आधुनिकता को अच्छी तरह समझने का अथक प्रयास लाज़मी है मुश्किल है
क्योंकि हम भी इन सब से अलग नहीं है। आधुनिकता से हम प्रभावित नहीं - ऐसा सोचना
भूल होगी। इसने कमोबेश सब को प्रभावित किया है। आधुनिकता ने अपने को पिछली शताब्दी
से इतना परिष्कृत (refine) कर
लिया है कि यह अदृश्य और अति सूक्ष्म रूप से काम कर सकती है। लोगों के दिमाग पर
नियंत्रण करने में यह सफल है। संस्थाओं पर यह काबिज है। आधुनिकता ने वह क्षमता
विकसित कर ली है की पक्ष और विपक्ष दोनों पर सूक्ष्म रूप से नियंत्रण उसी का रहता
है। वह फिर अमरीका की डेमोक्रेटिक पार्टी हो या रिपब्लिकन; यहाँ कांग्रेस
और उसके घटक दल,
कम्युनिस्टों समेत हों या आप या बीजेपी हों - उसे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह सबको
पचाने और प्रभावित करने की क्षमता रखती है। कभी कभी वह स्वयं ही विरोध और विरोधियों
को भी खड़ा करती है और आगे बढ़ाती है। विश्वविद्यालयों और उनमे बैठे बुद्धिजीवियों, से लेकर मीडिया, शोध और अनुसंधान
करने वाली संस्थाएं,
आंदोलनकारी,
एनजीओ,
वे संस्थाएं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पैसा देती हैं, अवार्ड देती हैं, अलग अलग तरह से
आपको शोहरत दिलवाती हैं ताकि आपका नाम हो और आपकी बात सुनी जाने लगे – इन सबको
कैसे चलाना है,
कब किसका,
कैसे इस्तेमाल करना है – इन सब में अब उन्हे महारथ हासिल है। और अब तो सोशल मीडिया
– फेसबुक,
अमेज़ों,
ज़ूम,
इत्यादि के जरिये और artificial
intelligence ओर algorithm
की सहायता से वे आप और हम सबकी खोज खबर रख सकते
हैं। मानव व्यवहार कैसे संचालित होता है,
उसकी पसंद,
ना-पसंद,
उसके विचार कैसे बनते और बनाये जाते हैं उन्हे इसकी तरकीबें आती हैं।
शोषक और शोषित का फर्क इसने धूमिल कर दिया
है। जिसका शोषण हो रहा होता है वह स्वयं ही इस व्यवस्था का हिस्सा होने को, इस ‘विकास’ की दौड़ में
दौड़ने को लालायित है। जिसका शोषण हो रहा है वह भी अलग संदर्भ में शोषण करने वाला
बन जाता है। इस व्यवस्था का जो भौतिक रूप से लाभ उठा रहे होते हैं, जिन्हे आम तौर
पर शोषण करने वाले की कोटी में हम रखते हैं,
उनका भी कहीं न कहीं शोषण हो रहा होता है। सब गड्डमड्ड है।
इसमे अंतर्विरोधों को पचाने की अद्भुत
क्षमता है। कम्युनिस्ट चीन की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी; अंतर-राष्ट्रीय राजनीति
साम्राज्यवादी और घर के अंदर तानाशाही। दूसरी तरफ पूंजीवादी अमरीका। दुनिया के
सारे प्रगतिशील,
लिबरल और सेक्युलर विचारों का पाठ वहाँ की अकादमिक दुनिया और मीडिया संसार भर को
पढ़ा रही है,
उन्हे प्रोत्साहन दे रही है। इन विरोधाभासों को समझना ज़रूरी हो गया है। हमे ये
झांसे अब तो समझ आने चाहिये।
एक बार यह समझ आए तो हम अपने अंदर भी झाँके
और उस तह तक पहुंचे जहाँ से हमारे विचार बनते हैं। आधुनिकता जो दिखाती है, सच्चाई ठीक उसके
उलट होती है। आधुनिक लोकतन्त्र,
फ्रीडम की अवधारणा,
समानता की आधुनिक अवधारणा इन सबको बारीकी से देखने की आवश्यकता है। आधुनिकता तुलना, प्रतिस्पर्धा और
व्यक्तिवाद को बढ़ाती है। इसमे आधुनिक राज्य व्यवस्था और आधुनिक बाज़ार दोनों का लाभ
है।
इन्हे समाज रास नहीं आता क्योंकि वह इन्हे
चुनौती देने की क्षमता रखता है,
अकेला व्यक्ति यह काम नहीं कर सकता। व्यक्तिवाद और तुलना तथा प्रतिस्पर्धा का गठजोड़
है जिससे बाज़ार पोषित और पल्लवित होता है। प्रतिस्पर्धा, तुलना होड़ अंततः
ईर्ष्या और होड़ को ही बढ़ावा देते हैं। यह हिंसा है।
दूसरी तरफ आधुनिकता ने एक असत्य को ऐसा
प्रचारित किया कि वह आधुनिक दिमाग में अच्छी तरह बैठ गया है। वह असत्य है – “सबका
अपना अपना सच होता है”। यानि सत्य नाम की कोई वस्तु नहीं। पर सत्य यह है कि सत्य
सनातन होता है,
शाश्वत होता है – हर देश-काल में एक जैसा।
हाँ,
हर एक की अपने अपनी दृष्टि (perception)
ज़रूर होती है जो व्यक्ति की मान्यतायें,
उसके घर परिवार के माहौल,
उसकी पढ़ाई-लिखाई,
उसके वातावरण से पड़ने वाले प्रभावों,
उसकी व्यक्तिगत psychology
से मिलजुल कर बनती है। आधुनिकता ने इस दृष्टि को सत्य के स्थान पर रखकर हमारे
दिमागों,
हमारे सोचने समझने की प्रक्रिया को नियंत्रित कर लिया है। और इस बात से फ्रीडम की
आधुनिक अवधारणा का सीधा सीधा संबंध बैठता है। इससे फ्रीडम का जो अर्थ निकलता है, वह अंततः है –
मनमर्ज़ी। और यह अत्यंत लुभावना प्रस्ताव है। इसमे कोई बंदिश नहीं – जो चाहो सो
करने की छूट। इस एक बात से नैतिकता खारिज हो जाती है। कोई बंदिश नहीं। व्यक्तिवाद
की पराकाष्ठा! नैतिकता की कोई जगह नहीं। बंदिश होगी तो सिर्फ कानून की। कानून को
नैतिकता से अलग कर दिया गया है। और कानून की बैठक क्या होगी ? इसलिए गाँधी
कानून और अंतरात्मा की आवाज़ के बीच भेद करते हैं। व्यक्तिवाद और आधुनिक फ्रीडम की
दुहाई देने वालों को लगता तो है कि उन पर कोई बंदिश नहीं पर वे अब पर-संचालित होने
को पूरी तरह तैयार हो गया है। आधुनिकता की चकाचौंध – मीडिया, फैशन, नामीगरामी किताब, विचार, नामीगरामी लोग –
उसे प्रभावित करके संचालित करने का काम करते हैं। उसके दिमाग से सत्य की संभावना
ही मिटा दे गई है। अब वह बिन पैंदी के लोटे जैसा है। उसे लगता तो है कि वह मुक्त
हो कर सोच रहा है,
पर ऐसा होता नहीं।
आधुनिकता ने सत्य और fact के
बीच का अंतर समाप्त प्रायः कर दिया है,
तथ्य/ जानकारी के बीच भी यही किया है और ज्ञान और जानकारी के बीच भी। जानकारी और
तथ्य देश-काल से प्रभावित होते हैं,
बदलते रहते हैं। पुराने तथ्य और जानकारियां खारिज होती रहती है, नई आती रहती हैं।
इन्हे याद रखना पड़ता है। पर सत्य तो सनातन और शाश्वत होता है। एक जैसा। और ज्ञान
भी – बदलता नहीं। एक बार अनुभव में आ जाय,
समझ आ जाय तो बार बार याद रखने की ज़रूरत नहीं। बुनियादी भेद है इन सब में।
नैतिकता, उचित-अनुचित का भेद, न्याय की जड़ें
तो सनातन और शाश्वत सत्य में ही हो सकती हैं। यह सत्य सार्वजनीन और सार्वकालिक ही
हो सकता है जिस पर एक सहमति बन सकती है। यदि सनातन और शाश्वत सत्य का होना
स्वीकार्य नहीं (समझ तो दूर की बात है) तो नैतिकता और न्याय पर सहमति कैसे बन सकती
है?
फिर तो वह फ्रीडम के रास्ते में रुकावट के रूप में ही देखा जायेगा, एक थोपी हुई
बात।
आधुनिकता वस्तुनिष्ठता की बात तो करती है पर
उसे भौतिक,
दृश्य जगत तक सीमित करके देखती है। पर मूल वास्तविकता तो अदृश्य है, जो अनुभव में
आती है,
समझ आती है,
महसूस होती है,
जो होने में है,
दिखने और करने में नहीं। जो दृश्य जगत है वह तो परिवर्तनशील है।
शब्दों की दुनिया और अर्थ की दुनिया दो अलग
अलग,
आपस में जुड़ी हुई,
पर अलग अलग दुनियायेँ हैं। शब्द भाषा में है,
ऐंद्रिय है,
सुना जा सकता है,
किसी न किसी भाषा में होता है। शब्द का होना अर्थ पर निर्भर है। और उससे भी आगे जा
कर किसी वास्तविकता पर निर्भर है। लेकिन अर्थ, शब्द पर निर्भर नहीं है। वह तो भाषातीत है, इंद्रियों से
परे है,
उसे केवल समझा और अनुभव किया जा सकता है। उसे न दिखाया जा सकता न किया जा सकता है।
अर्थ की दुनिया ही वास्तविक दुनिया है। जो है – हम समझें न समझें वह फिर भी है –
सार्वजनीन,
सार्वकालिक शाश्वत और सनातन। शब्द बदलते रहते हैं। एक भाषा गायब हो जाती है, उसके शब्द उसके
साथ लुप्त हो जाते हैं। दूसरी भाषा का वर्चस्व फैल जाता है। अर्थ गायब नहीं होते।
वे तो हैं,
रहते हैं। शब्दों को रटा भी जा सकता है,
याद रखना पड़ता है। अर्थ तो समझने पड़ते हैं और पूरी बात तो उनकी अनुभूति होने पर
उनका अनुभव होने से होती है। इसे किया नहीं जाता। इसकी प्रक्रिया अलग है। शब्द
सीखे जा सकते है,
वह करने के क्षेत्र की बात है। अर्थ को पकड़ने की विधि अलग होती है – वहाँ ध्यान
आता है,
अध्ययन आता है। शब्दों में हम अलग अलग हो सकते हैं पर अर्थ जब समझ में आ जाय, अनुभव हो जाय, तो हम एक हो जाते
हैं,
समान होते हैं – कोई बराबरी नहीं,
कोई तुलना नहीं,
कोई होड़ नहीं।
आधुनिकता ने सब उलट पुलट कर दिया है। जो दृश्य
है,
ऐंद्रिय है,
परिवर्तनशील है,
सामयिक है - उसे वस्तुपरक (objectify)
करने का प्रयास (शब्दों की दुनिया) और जो सनातन और शाश्वत है, जो मूल में है, जो है, जो होने का (being का), है का (isness का)
हिस्सा है उसे व्यैकतिक (subjectify)
कर दिया है। आधुनिकता यही है। वास्तविकता को नकार कर सब को दृश्य जगत में दौड़ने और
एक दूसरे से होड़ करने में लगा दिया है। सब कुछ उल्टा-पुल्टा, उलट बांसी। इसी
से आगे प्रतिस्पर्धा,
तुलनावाद,
और व्यक्तिवाद पैदा होता है जो अदृश्य रूप से सभी को एक ही रास्ते हाँकते रहता है।
यही है वैश्वीकरण,
यही है आधुनिकता की समानता की कल्पना में और यही एकरूपता, एकरसता और
विविधता की दुश्मन है। आधुनिकता दो बड़े मूल्यों की बात करती है समानता (equality)
और स्वतन्त्रता (फ्रीडम) पर इन्हे दृश्य और परिवर्तनशील जगत तक सीमित कर दिया है जहाँ
तुलना व्याप्त है। आधुनिकता के प्रतिमान में तुलना निहित है इसलिए स्वतन्त्रता और
समानता सिर्फ एक लुभावना सपना बन कर रह गया है जो कभी पाया नहीं जा सकता पर लोग
पाने के लिए रेस में दौड़ते रहेंगे और अपने ‘अधिकार’ की मांग (किसी
ज़्यादा शक्तिशाली अदृश्य व्यवस्था से करते रहेंगे)। और चूंकि सत्य को पहले ही
खारिज कर दिया गया है इसलिए इनके सही अर्थों को पहचान पाना भी आधुनिकता की चौखट (paradigm) के
अंदर से रहते हुए असंभव प्रायः हो गया है। इस चक्रव्यूह को कभी न कभी तो समझना ही
होगा।
भारत का साधारण फँस गया है। एक तरफ उसे अपने
माहौल से आस्था,
संस्कार और जीवन मूल्य मिले हैं,
जिनका वह आज भी निर्वाह करने की कोशिश करता है। पर आधुनिकता की चूहा दौड़ में दौड़ने
को भी वह प्रेरित है या बाध्य है और इस दौड़ में उसका इस आस्था और इन मूल्यों के
साथ लगातार संघर्ष चलता है और इस कश्मकश में वह थक जाता है और हार कर एक समय के
बाद दौड़ दौड़ना उसे अनिवार्य सा लगाने लगता है और मूल्य पीछे छूट जाते हैं।
आज़ादी के बाद आज तक के प्रायः समस्त
राजनैतिक आंदोलन वर्तमान आधुनिक भौतिक paradigm
के अंदर से ही निकले हैं। महात्मा गाँधी ने ज़रूर जो
प्रयास किया उसकी चौहदी इसके बाहर थी। पर उनकी इस बात को उनके चेले भी शायद पूरी
तरह से या तो समझे नहीं या सहमत न थे। ये आंदोलन लोगों की भौतिक आवश्यकताओं और उन्ही
से संबन्धित अधिकारों तक सीमित रहे। उन्हे भारत पर हुए भयंकर सांस्कृतिक आघात की
और उससे जुड़े यहाँ के लोगों के मानस पर पड़े घाव की कोई समझ भी नहीं है, फिक्र तो दूर की
बात है। नेतृत्व में तो आमजन की आस्था,
वह जिन मूल्यों को लेकर अपना जीवन निर्वाह कर रहा है - इन सब के प्रति उदासीनता, अवहेलना से लेकर
तिरस्कार या एक प्रकार का दंभ से भरा दया का भाव ही अधिक देखने को मिला है।
नेतृत्व अधिकतर आस्था विहीन रहा है और नया नेतृत्व तो निजी जीवन में नैतिकता और मूल्यों
के प्रति भी उदासीन है। उसके लिए फ्रीडम ही सबसे बड़ा मूल्य है। ये लक्षण ईमानदार
नेतृत्व में भी देखे जा सकते हैं जो इंगित करते हैं कि सभी कमोबेश आधुनिकता की
चपेट में आये ही हैं। अधिकतर नेतृत्व स्वयं व्यक्तिवाद का कायल है और अपनी पहचान
में कहीं न कहीं फँसा हुआ है और यह एक समस्या है। समस्या इसलिए कि पहचान अधिकतर
इसी आधुनिकता की चौखट के अंदर से मिली है। यह कह कर मैं सारे राजनैतिक नेतृत्व पर
तोहमत नहीं लगा रहा हूँ,
वरन आज की वास्तविकता की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा हूँ। आधुनिकता ने किस कदर
सूक्ष्म रूप से हम सभी पढे-लिखों को अपने जाल में फाँसा है, उसे देखना तो
होगा। ऐसा कह कर मैं स्वयं को मुक्त भी नहीं कर रहा। उसने हमारे सोचने के ढंग, हमारे बुनियादी
मान्यताओं,
हमारी सोचने की कोटियों (categories),
हमारी दृष्टी से लेकर जिन सुविधाओं और technology
का हम उपयोग करते हैं उन सबसे हमें सूक्ष्म रूप से
बांध रखा है। हमे पहचानना होगा की हम जिसका (समाज के लिए) इलाज ढूंढ रहे हैं उससे
स्वयं भी पीड़ित हैं। आज शायद वह हालत भी नहीं की इससे पूरी तरह छुटकारा मिल जाय।
इसलिए इससे अलग हो कर इलाज ढूँढना अभी तो बस की बात नहीं लगती। लेकिन हम इस रोग और
इस वास्तविकता के प्रति सजग और सचेत तो अवश्य हो सकते हैं। अपने को भ्रम मुक्त तो
कर ही सकते हैं। और धीरे धीरे इससे मुक्ति के लिए प्रयास भी होगा।
वर्तमान paradigm के मूल में भौतिकवाद है
(इसके अंदर से उपजी विचारधाराओं में बहुत विविधताएँ हैं, विरोध भी है, लेकिन इनकी जड़े
कहीं न कहीं एक ही मूल से आती हैं) जो व्यक्तिवाद को बढ़ावा देती है, जिसका व्यक्तिक
स्वतन्त्रता के मूल्य (?)
से पूरी तरह सामंजस्य है। इसका संबंध तुलना,
होड़,
प्रतिस्पर्धा,
“विकास” की चूहा दौड़,
वैमनस्य,
ईर्ष्या और हिंसा से है। यह समीकरण हमे देखना होगा। आधुनिक राजनैतिक नेतृत्व को
व्यक्तिक स्वतन्त्रता हमेशा लुभाती रही है,
आधुनिक न्याय व्यवस्था भी इससे पूरी तरह सहमत है। पर अब हमे दिखना चाहिये कि यह
आधुनिक paradigm से
जन्मी आधुनिक व्यवस्था के परिणामों,
जिनको हम चुनौती दे कर बदलना चाहते हैं,
उनमें और व्यक्तिक स्वतन्त्रता,
व्यक्तिक अधिकार,
तुलनावाद,
प्रतिस्पर्धा,
बाजारवाद और आधुनिक राज्य व्यवस्था में अन्यन्योअपेक्षित परस्पर अंतर्सबंध
है।
आधुनिक राज्य व्यवस्था को पारंपरिक समाज
सुहाता नहीं। आधुनिक बाज़ार को भी उस समाज से परेशानी है। पारंपरिक समाज कमोबेश
आत्म-निर्भर होता है (सिर्फ भौतिक संदर्भ में ही नहीं, अपितु इससे आगे
भी)। समाज में रहने वाले लोग करीब करीब एक तरह की मान्यताएँ, तौर-तरीके, सोचने और कार्य
और व्यवहार करने के ढंग रखते हैं। उसमे कुछ हद तक अपने नैतिक मूल्य होते हैं और
सबसे जरूरी अपने में एक विश्वास होता है। वह सक्षम होता है इसलिए समाज राज्य सत्ता
को चुनौती दे सकने वाली की क्षमता रखता है। और समाज दिखावे, पैसे के भौंडे
प्रदर्शन एवं अतिरेक भोग को भी हतोत्साहित करता है। यह आधुनिक बाज़ार के रास्ते में
रुकावट है। तो पारंपरिक समाज (सिविल सोसाइटी से अलग। सिविल सोसाइटी तो समाज है ही
नहीं,
सिर्फ कुछ लोगों का एक समूह है,
जो खास समय और खास मुद्दों पर कुछ देर तक इकट्ठा होते हैं और फिर बिखर जाते हैं), न राज्य सत्ता
और न बाज़ार व्यवस्था को रास आता है। इसलिए पारंपरिक समाक का टूटना और बिखर जाना
दोनों,
आधुनिक राज्य व्यवस्था और बाज़ार व्यवस्था के हित में है। व्यक्तिवाद, व्यक्तिक स्वतन्त्रता
(स्वछंदता कहना ज़्यादा उचित होगा),
व्यक्तिक अधिकार इसमे सहायक होते हैं। और आधुनिक व्यवस्था (शिक्षा, मिडीया, technology,
कानून व्यवस्था) से इन आधुनिक मूल्यों को बल मिलते रहता है।
आधुनिक शिक्षा ने बहुत सफलता के साथ हमारी
परम्पराओं के विषय में एक झूठे कथानक को जनमानस में बैठा कर उन्हे खारिज सा कर
दिया है। जिसके कारण,
धर्म,
धार्मिकता,
अध्यात्म,
नैतिकता,
सौंदर्य दृष्टि इत्यादि सबको एक साथ अज्ञान,
अंधविश्वास,
और स्वतंत्र चिंतन के विरुद्ध करार कर उसे ऐसे किसी फालतू के टोकरे में डाल कर
हमसे अलग ही कर दिया है। सेक्युलरिज़म को फैशनेबल बना दिया गया और लोग झांसे में आ
गए। पर इस सेक्युलरिज़्म का सनातन और शाश्वत सत्य से कोई लेना देना नहीं, जैसे व्यक्तिक
स्वछंदता का नहीं। आधुनिकता ने पहले ही यह बोल कर कि “सबका अपना अपना सच होता है’ सोचने की
प्रक्रिया,
उसकी दिशा ही मोड़ दी है। सब कुछ गड्डमड्ड या दूसरी दृष्टि से देखें तो सब कुछ में
एक गज़ब का तालमेल।
अतः एक नये राजनैतिक आंदोलन का मूल आधार
सत्य (तथ्य से अलग;
सनातन और शाश्वत) में ही हो सकता है जिसमे नैतिकता, मूल्य, उचित-अनुचित भेद उद्गम होंगे उत्सर्जित
होंगे,
उनमे परस्पर तालमेल होगा और उनकी जड़े सत्य से जुड़ी होंगी। आधुनिकता द्वारा पोषित
फ्रीडम की अवधारणा की जगह सत्य पर खड़े स्व-तंत्र-ता और स्व-राज्य के मूल्यों को
स्थापित करना होगा। और इसकी एक स्पष्ट समझ बनानी होगी। इच्छा (want)
और आवश्यकता (need)
के बीच के फर्क को समझते हुए भौतिकवाद को एक सीमा पर रखना होगा। और आज चल रहे
दृश्य और परिवर्तनशील आधुनिक paradigm
से अलग सनातन और शाश्वत सत्य के आधार पर खड़े नये paradigm की
नींव रकनी होगी। संक्षेप में नई राजनीति का आधार नैतिकता, आध्यात्मिकता, और सनानातन
शाश्वत सत्य में ही होगा।
पवन कुमार गुप्त
मसूरी अक्षय तृतीया 2077
अप्रैल 26, 2017